Friday, December 11, 2009

साजिश नए सिंहासन की

जिसका डर था आखिर वही हुआ...फिर बंटेगा यूपी। अपनी तेजी के लिए जाने जाने वाली उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने उत्तर प्रदेश को बांट दिया। इस बार भी सदियों से सुनाई देने वाला नारा लखनऊ की प्रेस कॉन्फ्रेंस में गूंजा कि भाई तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। सूबे को बांटने के लिए हम पूरी तरह से तैयार हैं और हमारे लोग भी। बस देर कर रही है तो केंद्र की सत्तासीन कांग्रेस सरकार। मैं जनता के साथ हूं....जनता जो कहेगी...वो मैं करूंगी। मैं हमेशा से छोटे राज्यों के पक्ष में रही हूं। छोटा राज्य बोले तो बहेगी उसमें विकास की गंगा।

शायद
... भूलना मुश्किल है
मैं अपनी उम्र के 26वें पड़ाव में आकर आज भी एक झटके में यह बोल जाता हूं कि देहरादून तो उत्तर प्रदेश में ही आता है, एक पत्रकार होने के बावजूद भी। यहां पत्रकार शब्द पर ज्यादा जोर इसलिए दे रहा हूं कि कहा जाता है कि इनकी याददाश्त ज्यादा तेज होती है या फिर ये कुछ ज्यादा ही अपडेट होते हैं। फिर झट से अपनी गलती को, जो मेरी जिह्वा और मानस पटल में जम चुकी है, को सुधारने की कोशिश करते हुए बोलता हूं कि देहरादून उत्तराखंड की राजधानी है, जो कब का अलग हो चुका है....उत्तर प्रदेश से। खींच दी गई हैं सरहदों में लकीरें...जो शायद सिर्फ इंसानों के लिए हैं, परिंदों के लिए नहीं।

आदत डाल ही लेनी चाहिए
बंटवारे से मुझे काफी डर लगता है। कारण कुछ और नहीं बल्कि मेरी सबको साथ लेकर चलने की आदत है। सबके साथ रहने की आदत....ये बुरी आदत भी इसीलिए पड़ गई कि मेरा बचपन एक संयुक्त परिवार में बीता है। जिसे अक्सर इंतजार रहता था अपने बड़े परिवार के सदस्यों के आने का, जो कि आज की तारीख में काफी हद तक खत्म हो चुका है। उत्तराखंड की तरह शायद अब मैं हरित प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल को भी अपने चित्त में बैठाने की आदत डाल ही लूं। लेकिन क्या में आपके सामने अपने प्रदेश का नाम बताने में गल्तियां नहीं करूंगा....यूपी की जगह बुंदेलखंड बोलने की आदत डाल लेनी चाहिए।

तो क्या अब वो बुंदेलखंडी बोलेगा
अगर सूबे की मुखिया मुख्यमंत्री मायावती की योजना परवान चढ़ गई और वहां की मासूम जनता उनके बहकावे में आ गई तो मैं अपने आपको कहां का बोलूंगा और लोग मुझे क्या कहकर पुकारेंगे....बाहर जाने पर। मुझे अभी भी यूपी का भइया ही अपने आप को कहलाना पसंद है। मैंने कुछ समय के लिए चंडीगढ़ में पत्रकारिता की, जहां यूपी और बिहारवालों को भइया कहा जाता है। मुझे भी मेरे एक मित्र ने भइया कहा था। उसका कोई गलत मंतव्य नहीं था, इसे कहने को लेकर...मजाक में या फिर जब उसे मुझ पर लाड़ आता था। तो क्या अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो वो मुझे अब बुंदेलखंडी बोलेगा...।

टूटे-फूटे जुड़ाव की साजिश
केंद्र सरकार की ओर से आधी रात को तेलंगाना को पृथक राज्य बनाने की घोषणा और उसके तुरंत बाद मायावती का उत्तर प्रदेश के एक नहीं कई टुकड़े करने की लालसा के पीछे आखिर क्या पेंच है। इसको सिर्फ विकास के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। यह कुछ नहीं एक सियासी चाल है...जनता से टूटे-फूटे जुड़ाव की एक साजिश है, जिसके जरिए वो अगला सिंहासन पाने का सपना देख रही हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में थोड़ा गुणाभाग करके देखा जाए तो मायावती की पूर्वांचल और बुंदेलखंड में काफी कम पकड़ है। पश्चिमी उप्र में अजित सिंह की अच्छी खासी पकड़ है, जबकि बुंदेलखंड में कांग्रेस उभरी है।

कांग्रेस का बंटाधार करने का इरादा
सूबे के टुकड़े-टुकड़े करने के उनके बयान से सबसे ज्यादा यदि किसी को क्षति पहुंचाने की कोशिश की गई है, तो वो सिर्फ कांग्रेस को ही। क्योंकि उप्र में इस समय कांग्रेस जी-तोड़ कोशिश में जुटी हुई है अपने आप को मजबूत करने में। अपनी बेअंदाजी के लिए जाने जाने वाली मायावती ने यह कहकर तो पूरी तरह उन लोगों की सहानुभूति अपने पक्ष में कर ली है, जिनने टुकड़े-टुकड़े करने का इरादा पाल रखा है। लेकिन ऐसा बयान देकर और यह बोलकर कि केंद्र पहल करे, हम पूरी तरह से तैयार है....सत्तासीन कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने की सीधी-सीधी कोशिश की गई है।

सिर से आंखें निकाल लो और नाक

ठीक किया केंद्र ने के। चंद्रशेखर राव की मांग मानकर। अव्वल दर्जे का काम किया है केंद्र सरकार ने देश में 29वें राज्य का गठन करके। शायद यह विकास के लिए सही भी है। एक व्यक्ति के शरीर के जितने अधिक से अधिक टुकड़े किए जाएंगे, उतना तेज ही उसका विकास होगा और उतनी ही तेजी से उसमें निखार आएगा। आंध्र के दो टुकड़े बुधवार की देर रात कर दिए गए...और मिल गई तेलंगाना राज्य को मंजूरी।

धड़ को नोचना शुरू कर दो
विकास की दृष्टि से शरीर को भी बांटने में कोई गुरेज नहीं करना चाहिए। पहले सिर अलग करो और धड़। फिर सिर से आंखें निकाल लो और नाक। इस पर भी किसी ने आमरण अनशन की धमकी दे दी तो फिर धड़ को नोचना शुरू कर दो। अरे भाई.... आपको मालूम नहीं कि इससे विकास तेज होता है। आधारभूत ढांचे में बड़ी जल्दी सुधार भी आता है और नए राज्यों से जुड़े नेताओं के बैंक बैलेंस में भी। तेलंगाना के गठन के बाद और राज्यों में भी बंटवारे की राजनीति सुलगने लगी है। केंद्र सरकार तेलंगाना राज्य के गठन पर सहमत हो गई है लेकिन उसके समक्ष नौ अन्य नए राज्यों के गठन की मांग जोर पकडऩे लगी है।

ये देखिए अब आया गोरखालैंड
पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, बिहार में मिथिलांचल, कर्नाटक में कुर्ग, उत्तरप्रदेश और मप्र के कुछ हिस्सों को मिलाकर बुंदेलखंड राज्य और गुजरात में सौराष्ट्र के गठन की मांग है। ये देखिए विकास की रफ्तार इतनी तेज हो गई कि मेरे लिखते-लिखते ही खबर आ गई कि गोरखालैंड की मांग कर रहे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने भी अब राव के बाद अनिश्चिकाल के लिए अनशन पर जाने की चेतावनी दे दी है। यह ऐलान मोर्चा के महासचिव रोशन गिरी ने किया। बकौल गिरी यदि जल्द ही इस बाबत कुछ कदम नहीं उठाए गए तो उनके 21 युवा कार्यकर्ता आमरण अनशन पर चले जाएंगे....। लीजिए अब इनसे भी निपटिए।

तभी गिनते रह जाओगे
नया राज्य बनेगा। चारों तरफ से पैसों की बरसात होगी....मलाईदार पदों पर बैठे नेता और उनके शागिर्द नए नवेले राज्य का विकास करने के बजाए जुट जाएंगे अपना विकास करने में। पैसा तो आना ही चाहिए...चाहे वो राज्य के विकास के लिए हो या फिर अपने विकास के लिए। राज्य का विकास कौन देखता है, अपना विकास है तो राज्य का विकास ही होगा। यहां ये नेता भूल जाते हैं कि जब हम सुधरेंगे तो ही धीरे-धीरे राज्य भी सुधरेगा और देश भी। तभी तो देखिए हनी के पास कितना मनी है....गिनते रह जाओगे।

शायद अब वो दिन दूर नहीं रह जाएगा, जब हर एक शहर प्रदेश होगा और हर शहर के मोहल्ले उस प्रदेश के जिले होंगे। और प्रदेश के नाम पर कम बढ़ती नेताओं और उनके शागिर्दों की फौज पर आपका खून पसीना बेतरतीब तरीके से बहाया जाएगा।

Thursday, November 5, 2009

पता नही, कहाँ चले गए...

दिल मानो थम सा गया हो....जैसे ही यह आवाज मेरे कानों तक गयी की प्रभाष जी नही रहे। गुरूवार और शुक्रवार की दरम्यानी रात कुछ ऐसा हुआ की वक्त ख़ुद ब ख़ुद मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और बोला की पत्रकारिता के पितामह नही रहे। बीच-बीच में आँखे भी नम हो रही थी और दिल में उथल-पुथल भी हो रही थी की जिसे मैं गुरुवार की रात तहलका में(हम नमक सत्याग्रही) पढ़ रहा था....वो तैयारी कर रहा था किसी दूसरे लोक को जाने की।

जीवन में पहली बार किसी के नही रहने का आभाव महसूस हुआ। पत्रकारिता के पितामह प्रभाष जोशी नही रहे। जितनी बार ये शब्द मेरे कानों में पड़ते है....दिल मचलने लगता है और आँखे नम हो जाती है। की बोर्ड से हाथ उठकर आंखों से बह रहे आंसुओं को रोकने के लिए उठ जाते हैं। मेरा उनसे कभी इतना मेल-मिलाप नही रहा की आलोक तोमर या फिर किसी अन्य वरिष्ठ पत्रकारों की तरह मैं अपने आप को उनसे सीधा जोड़ सकूं। मेरी प्रभाष जी से मुलाकात वर्ष २००३ में वाराणसी में एक सम्मलेन के दौरान हुई थी। तब मैं इलाहबाद यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता का कोर्स कर रहा था। कितना तेज था उस चेहरे में.....क्या कड़क आवाज थी। उसी आवाज का जादू था की जीवन में एक बार, मैंने सोच लिया था की मुझे जनसत्ता में काम करने का अवसर मिल जाए। यह उनका ही आशीर्वाद रहा होगा की मेरी यह इच्छा २००७ में पूरी हुई, जब मैंने चंडीगढ़ अमर उजाला छोड़कर चंडीगढ़ में ही जनसत्ता ज्वाइन किया। अमर उजाला की चंडीगढ़ में बेहतर स्थिति थी और मुझे तब के संपादक उदय कुमार जी ने रोका भी था, लेकिन मैं अपने आप को सिर्फ़ प्रभाष जी की वजह से उस ३०० प्रतियाँ छपने वाले अखबार से ख़ुद को जोड़ना चाह रहा था, जिसका सपना मैंने २००३ में वाराणसी में देखा था। जब मेरे पास जनसत्ता का ऑफर लैटर आया तो मेरी आँखे ठीक वैसी ही नम हो गयी जैसे आज उनके इन्तिकाल की ख़बर सुनकर। दोनों में बस फर्क इतना है की वो मेरे खुशी के आंसू थे और आज जो निकल रहे हैं वो किसी, की कमी के आंसू हैं, किसी के प्रताप के आंसू है,जिनकी कमी मुझे नही लगता की कभी भर पाएगी। नमन करता हूँ प्रभाष जोशी को.....नमन करता हूँ उनके साहस को और नमन करता हूँ उन्के क्रिकेट प्रेम को। मेरे लिए उनके प्रति उपजे सम्मान को यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी की वो एक भगवान् थे और मैं उनका भक्त। जिसके तार मन से जुड़े होते हैं...................पता नही प्रभाषजी कहाँ चले गए.....।

Friday, August 7, 2009

जनाब ये बुतों का प्रदेश है.....

ऐसा तो सिर्फ़ आपकी बहनजी ही कर सकती हैं। पूरा सूबा सूखे की चपेट में है। कृषि प्रधान देश के महत्वपूर्व राज्य की जमीं सोना नही बल्कि पत्थर उगल रही है। पानी न मिलने की वजह से जमीने दरकने लगी है लेकिन बहनजी हैं की उनके कान में जूं तक भी नही रेंग रही। लगता है की अपने चुनाव निशान हाथी की तरह वह सिर्फ़ अपना मुह यानी ख़ुद को ही देख रही हैं, उन्हें अपने विशालकाय शरीर यानी जनता का दुःख-दर्द समझ में नही आ रहा है। न ही उसका अहसास हो पा रहा है।

भगवान् बचाए ऐसे नेताओं से जो सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के नारों के साथ सत्ता में तो आ जाते हैं, लेकिन हिताय और सुखाय से सदैव कोसों दूर भागते रहते हैं। यहाँ बात हो रही है उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की। उनके मूर्ति प्रेम और पार्क प्रेम की। मायावती ने तो हदें ही पार कर दी हैं। क्या अब उन्हें सत्ता mei अगली बार नही आना है क्या...। या फिर वो बेहतर तरीके से यह जान गयी हैं की उत्तर प्रदेश के भइया-बहनों को समझ में कुछ भी नही आने वाला। जब तक हो अपनी चला ही लो...बाद का क्या भरोसा। चुनाव के समय थोडी सी घुट्टी पिला दो, जिसका असर मतदान तक तो रहता ही रहता ही है। हाल में विधानसभा में अनुपूरक बजट पेश हुआ, जिसमे जो बातें सामने आई वो स्तब्ध कर देने वाली थी। विश्वास ही नही होता की कोई शासक अपनी जनता के लिए भला इतना कैसे निष्ठुर हो सकता है। बजट में बहनजी की तरफ़ से मूर्ति और पार्कों के लिए ४२७ करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया जबकि सूखे से निपटने के लिए २५० करोड़। अब देखिये ऐसा तो सिर्फ़ आपकी बहनजी ही कर सकती हैं। और किसी की क्या मजाल जो बेजान पत्थरों के लिए इतनी राशिः का प्रावधान करे और जान के लिए इतना कम प्रावधान। वैसे भी मैं आपको बताता चालू की इस सूबे में जान की कोई कीमत नही है। हाल में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकडों के मुताबिक पुलिस मुठभेड़ में यह सूबा और सूबों से मीलों आगे है। इससे आप सहज ही अंदाजा लगा सकेंगे की राज्य में बेजान ही बचेंगे। बोले तो बुत सिर्फ़ और सिर्फ़ बुत। आंकडों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में २००६-०७ में ८२, २००७-०८ में ४८, २००८-०९ में ४१ और वर्ष २००९-१० में २२ जुलाई तक ११ फर्जी मुठभेड़ के मामले दर्ज किए जाए है......सरकारी तौर par......। तो भला अब बताइए कौन क्या कर सकता है। बहनजी तो बहनजी ही ठहरी.....उनके साथ के लोग भी कम महान नही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के सभापति सुखराम सिंह यादव ने प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर स्थापित महापुरुषों की मूर्तियों का तत्काल अनावरण करने के राज्य सरकार को सलाह भी दे डाली। सभापति महोदय ने कहा की सरकार महापुरुषों की स्थापित मूर्तियों का तत्काल अनावरण सुनिश्चित करे। बकौल यादव महापुरुष धर्म, वर्ग और जाती से ऊपर है...........और बेचारी जनता इन सबसे नीचे......।

देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पर ही सही चुनाव आयोग ने विकास के धन से कथित तौर पर मूर्तियाँ लगाने के मामले में बहिन जी को तलब करके ठीक ही किया है। मायावती को नोटिस जारी कर १२ अगस्त तक जवाब देने के लिए कहा गया है। बहरहाल रिपोर्टों की माने तो मायावती सरकार मुख्यमंत्री की मूर्ति समेत ऐसी सरंचनाओं पर १५०० करोड़ पहले ही खर्च कर चुकी हैं....और जान बोले तो सजीव किसानों के लिए लगाये बैठें हैं आस, की खर्च कहीं से मिल जाए। मालूम हो की सूबे के ७१ में से ५८ जिले सूखे घोषित किए जा चुके हैं, लेकिन आदत है की बदलने का नाम ही नही ले रही है।

Monday, August 3, 2009

.....हो ही गया कलियुग की राखी का स्वयंवर

आखिरकार आइटम गर्ल राखी सावंत ने अपना आइटम बॉय, बोले तो जीवनसाथी इलेश को चुन ही लिया। ये पब्लिसिटी स्टंट था या फिर २४ कैरेट सोने की तरह शुद्ध.....भगवान् ही जाने। लेकिन इतना तो तय हो ही गया है की राखी ने इस स्वयंवर से अपने आपको त्रेता युग की सीता और द्वापर युग की द्रोपदी के स्वयंवर की कतार में थोड़ा बहुत तो लाकर खड़ा कर दिया है। इस पर अब धार्मिक संगठनो को कोई बवेला खड़ा करने की कोई जरूरत नही है। और न ही मैं ऐसा लिखकर किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचा रहा हूँ।

अरे भाई....इसमे किसी को कोई आपति भी नही होनी चाहिए। जैसे-जैसे युगों के नाम और उनके चरित्र में अन्तर आया है, उस दौरान के लोगों में, राखी कलियुग में पूरी तरह फिट बैठती हैं और इसमे किसी को कोई आपत्ति भी नही होने चाहिए। विश्वास ही नही होता....आँखें झुकी हुई, चेहरे में शरमाहट और शीलता का लबादा ओढे राखी पहले जैसी २ अगस्त की रात को लग ही नही रही थी। जैसा मैं क्या, हर वो शख्स, जो थोडी बहुत टीवी का शौकीन है और उसके जरिये अपने नौटंकी के लिए प्रसिद्ध राखी को वो जानता है। अगर २ अगस्त यानी रविवार की रात वो राखी को देखता तो उसे उस पर कत्तई विश्वास ही नही होता। हया और लाज नजर आ रही थी राखी के चेहरे पर...जो अक्सर उसके चेहरे से कोसों दूर रहा करती थी। राखी के लिए तीन दूल्हों क्षितिज, इलेश और मानस को देखकर रविवार की रात एकदम यह नही लग रहा था की कुछ इनके साथ राखी बुरा-भला कर सकती है। किसी एक के गले में वरमाला डालने से पहले राखी ने भगवान् को याद किया और उनसे यह प्राथना की किवह उनके निर्णय में उसका साथ दें। राखी ने अपना स्वयंवर देख रहे लोगो को अपने चिरपरिचित अंदाज में नर्वस कर ही दिया, जब उनने वरमाला डालने के लिए ये कह दिया कि अब आगे के लिए स्वयंवर पार्ट २ में मिलते हैं। सभी थोडी देर के लिए स्तब्ध रह गए, लेकिन पल भर कि देरी किए बगैर झट में राखी ने कनाडा के इलेशपरुजन्वाला को वरमाला पहना दी। तो यह था....कलियुग का स्वयंवर, जिसका गवाह आधे से अधिक का हिंदुस्तान रहा है। यह इसीलिए क्योंकि जिसे चैनल में यह लाइव दिखाया जा रहा था, उसकी टीआरपी अब तक कि सबसे ज्यादा रही है। मतलब साफ़ है कलियुग का स्वयंवर देखने के लिए कलियुग के दर्शक ही उनकी टीआरपी बढाने में लगे थे.......शायद मेरे जैसे।

राखी का स्वयंवर होते ही उसके पुराने एकतरफा आशिक रहे मीका ने भी यह ऐलान कर डाला कि वो भी राखी कि तर्ज पर स्वयंवर नही स्वयाम्वाधू करेंगे। ये था नहले पर दहला। इतना तो तय है कि राखी ने कलियुग में स्वयंवर कर एक नयी परिपाटी तो चला ही दी है। एक अभिनेत्री अमृता राव ने भी राखी कि ही तरह स्वयंवर रचने कि अपनी इच्छा जगजाहिर कर दी है। अब देखना यह है कि कलियुग के ये स्वयंवर कितना सफल रहते हैं। क्या राखी सीता और द्रोपदी कि तरह अपने वर का हर समय साथ देती हैं या फिर ..................।

Saturday, June 20, 2009

जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए.....

हद है भाई, तुमने तो देखकर फेक दिया। कल मुझे इसका जवाब देना होगा। कुछ ऐसी ही बातें मेरे एक पत्रकार मित्र ने बड़ी ही शिद्दत से मुझसे कहीं। असल में हुआ क्या की उनने मुझे कोई ख़बर दिखायी और मैंने उसे देखकर उसे देने के बजे पास ही टेबल में फेक दी, जिसके जवाब में उनने ये बातें मुझसे कहीं। यहाँ मैं एक चीज पूरी तरह से साफ़ कर देना चाहता हूँ की मैंने उस ख़बर को सिर्फ़ इसीलिए फेका की वह बन चुकी होगी।

मेरे दिमाग में ऐसा करने के पिच्छे सिर्फ़ और सिर्फ़ यही एक पुष्ट कारन था, जिसके जवाब में मुझे ये बातें उनकी तरफ़ से सुनने को मिली। ये कहे हुये शब्द ग़लत भी नही थे, क्योंकि यहाँ बात उनने की जवाबदेही की। जो की शनिवार को दिल्ली में शुरू हुयी भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक में बड़े ही शिद्दत के साथ बीजेपी नेता अरुण शौरी ने वहां मौजूद पार्टी जनों से कहीं। उन्होंने बड़ी ही बेबाकी से कहा की अब तो जवाबदेही तय ही की जानी चाहिए। जिनको जिम्मेदारी दी गयी, उनने अपनी जिम्मेदारी बेहतरीन तरीके से क्यों नही निभायी। काश! मेरे पत्रकार मित्र की तरह वहां भी डर किसी की दांत या फिर किसी की झिद्कन का होता। किसी ने सच ही कहा है की बिन भय होय न प्रीत। शौरी ने सीधे तरह कार्यकारिणी की बैठक से नदारद रहे अरुण जेटली पर निशाना साधते हुए कहा की यदि किसी को किसी काम की जिम्मेदारी सौपी गयी है तो, उसकी जवाबदेही भी तय की जाने चाहिए। सच भी तो है...जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए। बिना जवाबदेही तय किए आप कैसे किसी को आँक सकते हैं या फिर यूँ कह ले की यदि किसी को पुरुष्कृत करना है या दण्डित करना है तो उसके पिच्छे ठोस कारन इसी शब्द के रसातल में ही तो जाकर मिलते हैं। अब वक्त आ गया है की पार्टी के अन्दर हर काम की जवाबदेही तय ही होने चाहिए। शायद यदि जवाबदेही बीजेपी के राजनाथ सिंह और लाल कृष्ण अडवानी ने तय कर दी होती तो शनिवार को राजनाथ सिंह को यह नही कहना पड़ता की पार्टी में विजय और पराजय दोनों की जिम्मेदारी सामूहिक होती है, लेकिन यदि ऐसा ही है की किसी एक को ही हार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए तो पार्टी अध्यक्ष के नाते मैं इसे स्वीकारता हूँ। जिस पर इतने दिनों से बवेला मच हुआ है, उसी को टालने के लिए राजनाथ सिंह ने ऐसी बातें कह पार्टी की बैठक में अपना बड़प्पन दिखाया है। जिसने काम नही किया, उसे प्रुश्क्रित किया गया और किसने काम किया उसे किनारे किया गया। लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बावजूद यदि बीजेपी चेतकर अपनी पार्टी में ठीक वैसे ही जवाबदेही तय नही करती, जिस तरह मेर पत्रकार मित्र की तय की गयी है तो उसे एक क्या....दो क्या...बार-बार हार के बाद आयोजित बैठक में दिग्गजों को यही बोलना पड़ेगा की हमारी सोच सिविलिज़शनल पैरामीटर की है। एक या दो चुनाव की हार हमें विचलित नही कर सकती। जरूरत है kई और हार की.....................

Monday, June 15, 2009

अब यूपी की बारी है.....

सच बताऊँ तो जब से होश संभाला था, तब से यही सुनता आ रहा था कि दिल्ली के सिंघासन का रास्ता यूपी और बिहार से ही होकर जाता है। यानी यूपी हुई हमारी और अब दिल्ली की बारी है, लेकिन यह क्या यहाँ तो लाइन ही पूरी तरह से आगे पीछे हो गयी है। कांग्रेस का रीवैवल प्लान काफी हद तक उसके लिए इस बार के आम चुनावों में मददगार साबित हुआ। तो क्या यह भी कांग्रेस के रीवैवल प्लान का ही हिस्सा है कि उसने सत्ता के गलियारों में अक्सर गूंजने वाली उपरोक्त लाइनों को उल्टा कर दिया।

जी हाँ....हाल में हुए लोकसभा चुनावों में अपनी जीत का परचम लहरा चुकी कांग्रेस यूपी हुई हमारी है अब दिल्ली की बारी है को पूरी तरह ग़लत साबित करते हुए द्लीली हुई हमारी है आयर अब यूपी कि बारी है कि तर्ज पर यूपी में खोया अपना जनाधार पन्ने के लिए दिल्ली से कूच कर चुकी है। पार्टी स्तर पर भी इस बात को काफ़ी गंभीरता से लिया जा रहा है कि २०१२ में यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनावों में वह इस बार से बहुत ज्यादा संख्या में उभरे ताकि भारतीय लोकतंत्र के आसमान में खो चुके अपने वजूद को वह वापस ला सके। वैसे भी पूरी तरह से इस बार के रीवैवल प्लान का श्रेय कांग्रेस के ब्रांड राहुल को ही जाता है। उनने ही लोकसभा चुनाव में यूपी और बिहार में बिना क्षेत्रीय दलों के चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया था। यानी यह कहना राहुल का ही है कि पहले ख़ुद को आजमाएंगे, फिर जरूरत पड़ी तो गठबंधन धर्म निभाएंगे। और राहुल बाबा का यही फार्मूला उन्हें और उनकी पार्टी के सीए ताज बाँध गया। कांग्रेस ने हाल में यह फ़ैसला लिया है कि वह राहुल का जन्म दिन, जो कि १९ जून को पड़ता है, को यूपी में सभी जाती के लोगों के साथ मिलकर मनायेगी। ताकि इससे मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को वह झटककर विधान सभा चुनाव में सफलता का स्वाद चख सके और उसके बाद वह इसका इस्तेमाल करे दिल्ली के सिंघासन के लिए। यूपी में अब बसपा के बाद कांग्रेस ने भी सोशल इंजीनियरिंग का रास्ता काफ़ी हद तक चुन लिया है। पार्टी राहुल के जन्मदिन के अवसर पर बसपा की वोट बैंक में सेंध लगाने की योजना बना रही है। इसके तहत राहुल के जन्मदिन को समरसता दिवस के रूप में भी मनाने कि योजना है। बताया जाता है कि प्रदेश कांग्रेस १९ जून को राहुल के जन्मदिन पर दलित बहुल इलाकों में सामुदायिक समारोहों का आयोजन करेगी और इस दिन सहभोग भी आयोजित किए जायेंगे, जिनमे पार्टी जनों के आलावा सभी समुदायों के लोगों को आमंत्रित किया जाएगा। मालूम हो कि हाल के आम चुनाव परिणामों से उत्साहित कांग्रेस पहले भी बेबाक तरीके से कह चुकी है कि वह २०१२ में होने वाले विधानसभा चुनाव में प्रदेश अपनी सफलता बनने के लिए कोई कोर कसार नही छोडेगी। यूपी तो यूपी ही है, बिहार के विस चुनाव के लिए भी जीत से लबरेज कांग्रेस ने कमर कास ली है और आम चुनाव कि तर्ज पर उसने यह भी कह डाला है कि २०१० के चुनाव में वह पूरी तरह से बिहार में अकेले चुनाव लडेगी।

हालाँकि राहुल ने यह भी एक बार स्वीकार किया था कि अगर कांग्रेस अपने दम पर केन्द्र में सत्ता में आना चाहती है तो उसे यूपी में सबसे ज्यादा सीट हासिल करनी होगी। बहरहाल कांग्रेस ने यह दांव उस समय खेला है, जब पिछले २० वर्षों से प्रदेश मी हाशियें पर गयी पार्टी ने हाल में लोकसभा चुनाव में राज्य में एक बार फिर अपने कदम मजबूत किए हैं। इससे एक बार फिर एकला चलो कि रणनीति को बल मिलता है।

Saturday, March 28, 2009

सेटिंग ऐसी की बाद में हो बढ़िया गेटिंग

इस बार के चुनावी महासमर में चोटी पार्टियाँ अपने आप को क्षेत्रीय स्तरपर मजबूत करने में जुट गयी हैं। अकेले दम पर चुनाव लड़ने की कूवत रखे ये दल भले ही चुनाव बाद गठबंधन धर्म निभाते हुए किसी बड़ी पार्टी के बैनर टेल आ जाए, लेकिन अभी ये अपने दम पर ही रणभेरी बजाने में जुट गए हैं।

एकला चलो की रणनीति पर इस समय सभी क्षेत्रीय दल चलने पर आमादा हो गए हैं। ये सभी चाह रहे हैं की वो इन आम चुनावों में अधिक से अधिक अपनी यानी अपनी पार्टी की स्थिति मजबूत कर सके, क्योंकि ऐसा करने से उनका ही भला होने वाला है। भला बोले तो हो सकेगी बेहतर तरीके से बैगानिंग। यह सेटिंग इसीलिए हो रही है ताकि चुनाव परिणामों के बाद अच्छी खासी गेत्तिंग हो सके। आज की हर राजनैतिक पार्टी की आला नेता यह बेहतर तरीके से जान रहे हैं की अभी चाहे जो भी जैसे हो, चाहे जितना अलग-थलग पड़कर चुनाव में जुट जाए, लेकिन परिणाम आने के बाद गठबंधन की राजनीति शुरू हो जायेगी। फिर उस समय यह नही देखा जाएगा की चुनावों के पहले किसने कितनी सीटों से चुनाव लाधा था और किसने छोड़ीकिसके लिए कितनी सीट। चुनाव परिणामों के बाद चाहे वह भाजपा हो या फिर कांग्रेस, हर पार्टी के दिग्गजों की यही कोशिश रहेगी की उनके पास अधिक से अधिक संसद आ जाए ताकि वह दिल्ली की राजगद्दी पर आसीन हो सके। हर पार्टी के नेता के दिमाग में यह बात घर कर जाने से सबसे ज्यादा संप्रग और राजग के अस्तित्व को चुनोती मिल रही है। चुनोती इसीलिए की चुनावों के पहले जो इनकी साख को बट्टा लग रहा है, उसकी भरपाई कौन करेगा। आजकल मीडिया में सिर्फ़ यही खबरें छाईरहती है की फलां ने आज ये मोर्च खोल दिया तो फलां ने ये। फलां इसके साथ शामिल हो गए तो फलां किसी और के साथ। और उस फलां को भी धेकिये की वह यह भी कहने से गुरेज नही कर रहा की, उसने जिस पार्टी के साथ सेटिंग कर राखी थी, उससे वह अलग नही हो रहा है।

दिग्गजों के दिमाग तो बस अब यही चल रहा है की इस महासंग्राम में कितनी अधिक से अधिक सीटें हमें मिले और हम इन्ही सीटों के बल पर बेहतरीन गेटिंग लार सकें। यह सब जो आजकल तीसरा और चौथा मोर्चा अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है, वह सिर्फ़ गेटिंग की ही फिराक में है।

Friday, March 27, 2009

तो फिर औचित्य ही क्या है....

....बस इतनी ही शक्ति दी गयी है चुनाव आयोग को। आयोग की क्या सिर्फ़ इतनी ही जिम्मेदारी है की वो शांतिपूर्व तरीके से चुनाव कराये और पार्टियों को बिन मांगी नेक सलाह दे। सलाह भी कोई जरूरी नही है की कोई माने या न मने। जब किसी भी पार्टी को चुनाव आयोग की बातें या फिर यूँ कह ले की सलाह ही नही माननी तो क्यो इतना हल्ला होता है की इधर फलांने आचार संहिता का उल्लंघन कर दिया तो उधर फलां ने। जो जिसके मन में आए बके और जो जिसके मन में आए करे।

यहाँ पर विषपुरूष यानी वरुण गाँधी के भड़काऊ भाषण के मामले का जिक्र हो रहा है। आए दिन भाजपाई और कुछ कथित हिंदू संघटन बार-बार इस बात पर जोर दे रहे हैं की वरुण के साथ ग़लत हो रहा है, वरुण के साथ अन्याय हो रहा है। इस बार के आम चुनावों में यदि सबसे ज्यादा हो-हल्ला हो रहा है, तो सिर्फ़ वरुण के भड़काऊ भाषण के मामले पर ही है। आयोग का वरुण पर फैसला भी आ गया है की उन्होंने जमकर खुल्लम खुल्ला आचार संहिता की धज्जियाँ उडाईहै, लेकिन इस फैसले का क्या कोई आचार डालेगा। आयोग ने तो भाजपा को यहाँ तक सलाह दे डाली की उन्हें आम चुनावों से दूर रखा जाए। वरुण की भगवा पार्टी के दिग्गज तो खुलेआम बयानबाजियां कर रहे हैं की आयोग अपना काम करे। उसका काम सिर्फ़ बेहतर तरीके से चुनाव कराना है न की किसी के बारे में ग़लत तरीके से बयानदेना। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को देखो तो वो कह रहे हैं की वरुण तो चुनाव लडेगा ही और उनने तो तब हदें पार कर दी जब यह कहा की मैं तो उसके प्रचार की लिए पीलीभीत जाऊंगा, हमें किसी से कोई फर्क नही पड़ता। बेंदाजी की हदें पार हो रही हैं। उधर भाजपा के पीऍम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी (जो की इस समय पाक के ऑनलाइन अखबारों में अपने आप को फादर ऑफ़ नेशन शो कर रहे हैं। ) भी कुछ कम नही हैं। वो भी कह रहे हैं की वरुण तो चुनाव लड़कर ही रहेगा। इन्हे क्या है......एक फायर ब्रांड मिलने की खुशी है, जो इनके दिमाग को सांतवे आसमान पर ले जा रही है। यहाँ मैं यह कह रहा हूँ की आयोग को क्यों न इतने अधिकार दिए जाए की यदि कोई उम्मीदवार आचार संहिता का उल्लंघन करता है है तो उसकी जांच के बाद उम्मीदवारी ही रद कर दी जाए। जानकारों का कहना है की आयोग सिर्फ़ अपनी सलाह दे सकता है....इसके अलावा और कुछ भी नही कर सकता....तो फिर क्या करोगे ऐसी सलाह का। जो सजायाफ्ता हो या फिर मानसिक रूप से विशिप्त हो आदि कारणों के चलते आयोग चुनाव ladne से रोक सकता है। जब कोई ग़लत है, तो उसे ग़लत kahne में क्यों भाजपा के दिग्गज gurez कर रहे हैं। ऊपर से आयोग की vishswaniyta पर sawaliya nishaan लगा रहे हैं। साथ ही यह भी kahne से बाज नही आ रहे हैं की वह भाजपा के साथ भेदभाव कर रहा है और वो किसी के हाथों की kathputli है। यह tamasha roj का है। रोज का यही तमाशा है। दक्षिण में कोई ठाकरे नाम का जीव यह कह रहा की ये गाँधी हमारा है तो उत्तर में आडवाणी और राजनाथ। जो ग़लत है तो उसे डंके की चोट पर ग़लत क्यों नही कहा जा रहा। हाथ काटने वाले गाँधी की जरूरत राजनाथ को भी है और आडवाणी को भी। बाल ठाकरे भी इस मामले में कुछ कम नही हैं, उन्होंने तो ऐसे कामों के लिए एक सेना भी गठित कर ली है। चले जाते ठाकरे मुंबई हमलों को अंजाम देने वाले दहशतगर्दों से लड़ने। तब कहीं नजर नही आए, लेकिन ऐसे हाथ काटने वालों की न्यायालयको जरूरत नही है....विश्वास है हमें अपनी न्यायपालिका पर। और शायद इसीलए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वरुण को दोषी पाते हुए उनकी मुकदमा रद करने की याचिका खारिज कर दी। पर बेशर्म वरुण को देखिये तो उन्होंने यहाँ तक कह डाला की अब मैं सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा। अरे वरुण यदि न्यायालयमें न्याय होता है तो उसको भी न्याय मिलेगा, जिसके ख़िलाफ़ भड़काऊ बातें कही है। आपको कोई हक़ नही बनता की आप बेगुनाहों के हाथ काटें चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। या फिर किसी और जाती का। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ये सिर्फ़ आपको बानगी मात्र है...अगर आपको समझ में आ रहा है तो समझ जाइये और सुधार लीजिये अपने आप को.....लेकिन मुझे पता है की आप ऐसा नही करेंगे।

Monday, March 23, 2009

...बख्श दो भाई गाँधी को !

ऐ भाई अब रहने दो.....बख्श दो महात्मा गाँधी को। बहुत हो गया....अब तो बंद कर दो बांटने की राजनीति। पहले देश को बांटा, फिर लोगों को, फिर जाती और धर्म के बीच खड़ी कर दी बड़ी सी दिवार। और अब बांटने पर तुलगए हैं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को। क्या पता बापू को आजादी के आधी शताब्दी बीत जाने के बाद उनके देश के महान नेता उन्हें ही बांटने पर लग जायेंगे। वरुण गाँधी के मुस्लिम विरोधी बयानों ने एकबारगी फिर गाँधी के अस्तित्व को खुल्लम खुल्ला चुनौती दे डाली है।

वरुण का पीलीभीत में दिया गया सांप्रदायिक बयान काफी हद तक बचकाना ही था। अपने बाप यानी संजय की तर्ज पर दौड़ा-दौड़कर नसबंदी करने और महात्मा गाँधी को बुरा-भला कहने जैसे बयानों को देकर वरुण ने अपने मानसिक दिवालियापन का सुबूत दे दिया है। भले ही इस मुस्लिम विरोधी बयान ने चुनाव में कथित हिंदूवादी संघटनों की रगों में खून का संचार औसतन मात्र में कुछ जयादा ही बढ़ा दिया हो, पर इसने गाँधी के अस्तित्व को चुनौती तो दे ही डाली है। गाँधी के वंशज होने के नाते इन्हे कुलतारण कहा जाए तो अतिशयोक्ति नही होगी। आजकल चाहे वह पूरब हो या पश्चिम, हर तरफ़ ये गाँधी हमारा है.....वो गाँधी तुम्हारा है.....और यदि हम गाँधी के पार्टी के न होते तो तुम्हारा बहुत कुछ बिगाड़ लेते....जैसी बातें बड़ी ही आसानी से सुनने को मिल जा रही हैं। कई हिंदूवादी संगठन वरुण के साथ कदम से कदम मिलकर खड़े हो गए हैं, तो कईयों ने उनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। मोर्चा खोला उन्ही लोगों ने, जो अपने आप को कथित धर्मनिरपेक्ष बतातें हैं। महाराष्ट्र की प्रमुख पार्टी शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे तो इस कदर वरुण के कायल हो गए हैं की उन्होंने तो सहर्ष यह करार दे दिया की यह गाँधी तो हमारा है। जो किसी का हाथ काटने से गुरेज नही करता, जो किसी की जान लेने से पहले एकबारगी नही सोचता.....वह गाँधी बाल ठाकरे का है। ठाकरे को लगता है की मुद्दतों से ऐसे ही गाँधी की तलाश थी। दुर्भाग्य था की महात्मा गाँधी वरुण से पहले आ गए। उस गाँधी को ठाकरे जैसे लोगों ने नही कहा था की ये गाँधी हमारा है। ठाकरे को हाँथ-पैर काटने और लोगों को लहूलुहान करने वाला वरुण गाँधी चाहिएन की सत्य की राह पर चलने वाला गाँधी। ऐसा लगता है की ठाकरेजी को तो अब तक कोफ्त होती रही होगी......उस अहिंसा वाले गाँधी से, जिसने सत्य, धर्म और अहिंसा की राह पर चलकर ठाकरे जैसे लोगों को चैन की नींद सोने की लिए जगह मुहैया कराई। कोफ्त होती रही होगी उस गाँधी से जिसने हमेशा पहले देश का सोचा, देश की जनता का सोचा न की किसी व्यक्ति विशेष या किसी जाती विशेष का। मतलब साफ़ है की आज के राजनेताओं को अब लाठी वाला नही, बन्दूक और तलवार वाला गाँधी चाहिए। जो जब चाहे, कहीं भी चाहे किसी का गला और किसीको भी लहूलुहान कर सकता हो।

संघियों और कट्टर हिंदू संग्तनों की तो मनो बांछे खिल गयी हों। बड़े दिनों बाद उन्हें कोई सिरफिरा फिरेब्रद नेता मिला है.....और देर क्या थी ले लिया उसे हांथो-हाँथ। १५वी लोकसभा के चुनावने तो गाँधी पर एक नयी बहस को जन्म दे डाला है। कुछ कथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं को तो मनो बैठे बिठाये मुद्दा मिल गया हो। राजद के लालू यादव ने वरुण को तो यहाँ तक कह डाला की अगर मैं गृहमंत्री होता तो वरुण को तो निपटा ही देता। अब पता नही कौन किसे नाप रहा है, या फिर है नापने की फिराक में। गुजारिश बस इतनी है की बख्श दो गाँधी को....।

पाक बुद्धजीवी चिंतित:
वरुण के मुस्लिम विरोधी बयानों से पकिस्तान के बुद्धजीवी वर्ग में कोहराम मच गया है। मशहूर ई जिंक पाक टी हाउस के संपादक रजा रूमी का कहना है की वरुण यदि भारत के चुनावों में निर्वाचित हो जाते है तो पाक उनका अगला निशाना होगा। गाँधी की मुस्लिमों के बारे में टिप्पणिया हमारे लिए चिंता का विषय है, क्योंकी इसमे हमें घृणा करनेवालों की जमात बताया गया है। यदि हमारे इस्लामियों और जेहादियों पर दुनिया की नजर आती है तो वरुण जैसे मूर्खों को चिंता नही करनी चाहिए। बुद्धजीवियों का कहना है की कल्पना करिए की अगर वरुण सत्ता में आ जाते हैं तो, निश्चित रूप से हमारे सर कलम कर दिए जाने चाहिए। क्योंकी हमारे नाम डरावने हैं और हम मुस्लिम हैं।

Sunday, March 22, 2009

पहले ख़ुद को आजमाएंगे, जरूरत हुई तो गठबंधन धर्म निभाएंगे

धर्मनिरपेक्ष पार्टी का चोल ओढे कांग्रेस इस समय एकला चलो की नीति पर चलने को आमादा हो गई है। पहले उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और अब बिहार-झारखण्ड में लालू यादव से अलग रहकर चुनाव लड़ने की पार्टी की रणनीति के पीछे पार्टी के युआ नेता राहुल गाँधी का दिमाग बताया जा रहा है। इसे पार्टी के दिग्गज राहुल रिवाइवल प्लान कहने से भी गुरेज नही कर रहे हैं। इसके तहत कांग्रेस अपने आप को उत्तर भारत में अकेला खड़ा करने की कोशिश में जुट गयी है।

दिग्गजों का मानना है की उत्तर भारत में गठबंधन धर्म निभाते-निभाते पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में तो पार्टी के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है। मालूम हो की ये दोनों सूबे १२० संसद द्सदन में भेजते हैं। वर्ष १९९८ के लोकसभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस को ७.२७ फीसद वोट मिले थे, तब सूबे से झारखण्ड अलग नही हुआ था। लेकिन वर्ष २००४ में गठबंधन के बाद मत फीसद घटकर करीब ४.४९ पर आकर सिमट गया था। वहीं उत्तर प्रदेश में पार्टीको १९९८ में ६.०२ फीसद वोट, जबकि २००४ में वोट फीसद बढ़कर १२.४ फीसद हो गया। पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं की हमारी कोशिश रही है की हम धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक मंच पर ला सकें। लेकिन यदि हमारे सहयोगी गठबंधन का धर्म निभाने के लिए तैयार नही हैं, तो हम अकेले ही चुनाव लड़ सकते हैं। वैसे भी पार्टी ने इन राज्यों में पहले काफ़ी लंबे समय तक राज किया है। वैसे भी राहुल ने देश के युआवों को अपनी तरफ़ मोड़ना शुरू कर दिया है। पार्टी के युआ नेता देश के सभी राज्यों में जा-जाकर युआवों को अपनी और आकर्षित करने में जुट गए हैं। बकौल तिवारी १९९८ मी पंचमढ़ी में हुए अधिवेशन में एकला चलो की रणनीति तय की थी, लेकिन जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने ६ साल तक गठबंधन सरकार चलायी, उसके बाद कांग्रेस ने भी रीजनल दलों की तरफ़ अपना झुकाव बढ़ा दिया। २००३ के शिमला अधिवेशन में पार्टी ने अपनी दिशा बदली और २००४ में सहयोगी दलों के साथ मिलकर संप्रग की सरकार बनायी, लेकिन ऐसा करने में पार्टी ने उत्तर प्रदेश और बिहार में अपना जनाधार खो दिया।

दिग्गजों का मानना है की राहुल ने कांग्रेस को मजबूत करने का बीनाउठा लिया है। राहुल की योजना है की पार्टी को अब किसी रीजनल दल की तरफ़ देखना न पड़े। हालाँकि मनीष बड़ी ही साफगोई से इस बात को भी कहने से नही चूकते हैं की यदि हममें कुछ खामी रह जाती है, तो हम गठबंधन धर्म निभाने से भी नही चूकेंगे। राहुल के इस प्लान के तहत हम उत्तर प्रदेश और बिहार में अकेले दम पर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लडेंगे। यदि कोई पार्टी यह सोचती है की कांग्रेस के बिना वह धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लड़ लेगी, तो यह उसकी भूल होगी। बिना किसी सहयोग के चुनाव लड़ने से कार्यकर्ताओं औत पार्टी नेताओं का उत्साह दुगुना रहेगा और वे बिना किसी दबाव के पार्टी हितों को ध्यान में रखते हुए बेहतरीन कदम उठाने से परहेज नही करेंगे। (राज एक्सप्रेस, भोपाल के २२ मार्च २००९ के अंक में प्रकाशित )

Friday, January 9, 2009

हंगामा न बरपे भाई.....

वाकई दिलचस्प है अपने आप में यह होना। आख़िर यह सब क्यों न हो, लोकतंत्र है भाई, कोई कुछ भी वह कह और कर सकता है....जब तक उसके काम से किसी और को कोई नुक्सान न हो। या फिर यूँ कह ले की किसी और को न झेलनी पड़े फजीहत। यहाँ पर एक पुरानी बात याद आ रही है की आपकी स्टिक घुमाने की स्वंत्रता वहां से ख़त्म हो जाती है, जहाँ से शुरू हो जाती है किसी दूसरे आदमी की नाक। लेकिन यहाँ तो स्टिक भी घूम रही है और नही भी पहुँच रही है किसी की अस्मिता को चोट......शायद अभी तक।

यहाँ बात मैं करने जा रहा हूँ १२वी शताब्दी से लोगों के लिए आसथा और श्रद्धा का पर्याय बने श्री जगन्नाथ पुरी के मन्दिर की। यहाँ के करीब तीस युआ पुजारियों पर हाल ही रिलीज हुई आमिर खान अभिनीत फ़िल्म गजनी की स्टाइल का इस कदर जादू हुआ की उनने संजय सिघनिया की हेयर स्टाइल ही रख ली। शायद ही इस समय बहुत ही कम लोग ऐसे हैं जो गजनी के आकर्षण की जद में न आते हो। यहाँ जद में आने का मतलब साफ़ है की इसकी एक झलक देखना, न की उसके सिधांतों पर चलना या फ़िर उसकी स्टाइल को आजमाना। स्टाइल को बहुत लोग अपना भी सकते हैं....आख़िर इसमें बुराई क्या है। अपने अलग अंदाज के लिए पहचाने जाने वाले आमिर का जो हेयर स्टाइल गजनी में दिख रहा है.....उसका असर आजकल एम टीवी प्रोडक्ट पर ज्यादा जोर-शोर से दिख रहा है। यहाँ एम टीवी का मतलब साफ़ है...आधुनिकता का लिबास ओढे या फिर समाज के आईने में अपने को अलग दिखाने का जूनून। यहाँ एम टीवी प्रोडक्ट और मन्दिर के उन तीस पुजारियों में अन्तर तब साफ़ पता चलता है जब उनके-उनके वक्तअव सामने आते हैं। अगर आप किसी एम टीवी प्रोडक्ट से यह बात पूछते हैं की आपने ऐसा क्यों किया तो उनका जवाब साफ़ रहता है की वो आमिर के फेन हैं....लेकिन जब यही जवाब जगन्नाथ मन्दिर के पुजारी देते हैं तो वो गर्व से लबरेज होकर कहते हैं की हमें हेयर स्टाइल पसंद आयी, इसीलिए हमने इसे अपना लिया। इसमे किसी को कोई हर्ज तो नही होना चाहिए। आमिर की हेयर स्टाइल से ओतप्रोत एक पुजारी का कहना है की ये सब देखकर यहाँ आने वाले श्रद्धालू जनों को थोड़ा बहुत अटपटा तो जुरूर लगता है, जब वे हमें धोती पहनकर खड़े होकर पूजा-अर्चना करते हुए देखते हैं। लेकिन हमारी नजर में यह एक सामान्य बात है। पर हमारे इस काम से कोई हमें आमिर खान का भक्त समझ ले, तो यह सरासर ग़लत ही होगा। हम भक्त तो हैं सिर्फ़ भगवान् जगन्नाथ जी के।

यह बदलाव की आंधी जो जगन्नाथ पुरी से चली है, अब देखना यह है की यह कहाँ तक और किसे-किसे अपनी जद में लेती है। इसे ग़लत तो नही ही कहा जा सकता, कम से कम हिन्दुस्तान की सरजमीं पर तो नही ही। इस सरजमीं पर कम से कम धर्म में तो इतनी कट्टरता नही है की, उस पर बॉलीवुड का साया पड़े और शुरू हो जाए तू-तू..मैं...मैं।