Saturday, June 20, 2009

जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए.....

हद है भाई, तुमने तो देखकर फेक दिया। कल मुझे इसका जवाब देना होगा। कुछ ऐसी ही बातें मेरे एक पत्रकार मित्र ने बड़ी ही शिद्दत से मुझसे कहीं। असल में हुआ क्या की उनने मुझे कोई ख़बर दिखायी और मैंने उसे देखकर उसे देने के बजे पास ही टेबल में फेक दी, जिसके जवाब में उनने ये बातें मुझसे कहीं। यहाँ मैं एक चीज पूरी तरह से साफ़ कर देना चाहता हूँ की मैंने उस ख़बर को सिर्फ़ इसीलिए फेका की वह बन चुकी होगी।

मेरे दिमाग में ऐसा करने के पिच्छे सिर्फ़ और सिर्फ़ यही एक पुष्ट कारन था, जिसके जवाब में मुझे ये बातें उनकी तरफ़ से सुनने को मिली। ये कहे हुये शब्द ग़लत भी नही थे, क्योंकि यहाँ बात उनने की जवाबदेही की। जो की शनिवार को दिल्ली में शुरू हुयी भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक में बड़े ही शिद्दत के साथ बीजेपी नेता अरुण शौरी ने वहां मौजूद पार्टी जनों से कहीं। उन्होंने बड़ी ही बेबाकी से कहा की अब तो जवाबदेही तय ही की जानी चाहिए। जिनको जिम्मेदारी दी गयी, उनने अपनी जिम्मेदारी बेहतरीन तरीके से क्यों नही निभायी। काश! मेरे पत्रकार मित्र की तरह वहां भी डर किसी की दांत या फिर किसी की झिद्कन का होता। किसी ने सच ही कहा है की बिन भय होय न प्रीत। शौरी ने सीधे तरह कार्यकारिणी की बैठक से नदारद रहे अरुण जेटली पर निशाना साधते हुए कहा की यदि किसी को किसी काम की जिम्मेदारी सौपी गयी है तो, उसकी जवाबदेही भी तय की जाने चाहिए। सच भी तो है...जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए। बिना जवाबदेही तय किए आप कैसे किसी को आँक सकते हैं या फिर यूँ कह ले की यदि किसी को पुरुष्कृत करना है या दण्डित करना है तो उसके पिच्छे ठोस कारन इसी शब्द के रसातल में ही तो जाकर मिलते हैं। अब वक्त आ गया है की पार्टी के अन्दर हर काम की जवाबदेही तय ही होने चाहिए। शायद यदि जवाबदेही बीजेपी के राजनाथ सिंह और लाल कृष्ण अडवानी ने तय कर दी होती तो शनिवार को राजनाथ सिंह को यह नही कहना पड़ता की पार्टी में विजय और पराजय दोनों की जिम्मेदारी सामूहिक होती है, लेकिन यदि ऐसा ही है की किसी एक को ही हार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए तो पार्टी अध्यक्ष के नाते मैं इसे स्वीकारता हूँ। जिस पर इतने दिनों से बवेला मच हुआ है, उसी को टालने के लिए राजनाथ सिंह ने ऐसी बातें कह पार्टी की बैठक में अपना बड़प्पन दिखाया है। जिसने काम नही किया, उसे प्रुश्क्रित किया गया और किसने काम किया उसे किनारे किया गया। लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बावजूद यदि बीजेपी चेतकर अपनी पार्टी में ठीक वैसे ही जवाबदेही तय नही करती, जिस तरह मेर पत्रकार मित्र की तय की गयी है तो उसे एक क्या....दो क्या...बार-बार हार के बाद आयोजित बैठक में दिग्गजों को यही बोलना पड़ेगा की हमारी सोच सिविलिज़शनल पैरामीटर की है। एक या दो चुनाव की हार हमें विचलित नही कर सकती। जरूरत है kई और हार की.....................

Monday, June 15, 2009

अब यूपी की बारी है.....

सच बताऊँ तो जब से होश संभाला था, तब से यही सुनता आ रहा था कि दिल्ली के सिंघासन का रास्ता यूपी और बिहार से ही होकर जाता है। यानी यूपी हुई हमारी और अब दिल्ली की बारी है, लेकिन यह क्या यहाँ तो लाइन ही पूरी तरह से आगे पीछे हो गयी है। कांग्रेस का रीवैवल प्लान काफी हद तक उसके लिए इस बार के आम चुनावों में मददगार साबित हुआ। तो क्या यह भी कांग्रेस के रीवैवल प्लान का ही हिस्सा है कि उसने सत्ता के गलियारों में अक्सर गूंजने वाली उपरोक्त लाइनों को उल्टा कर दिया।

जी हाँ....हाल में हुए लोकसभा चुनावों में अपनी जीत का परचम लहरा चुकी कांग्रेस यूपी हुई हमारी है अब दिल्ली की बारी है को पूरी तरह ग़लत साबित करते हुए द्लीली हुई हमारी है आयर अब यूपी कि बारी है कि तर्ज पर यूपी में खोया अपना जनाधार पन्ने के लिए दिल्ली से कूच कर चुकी है। पार्टी स्तर पर भी इस बात को काफ़ी गंभीरता से लिया जा रहा है कि २०१२ में यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनावों में वह इस बार से बहुत ज्यादा संख्या में उभरे ताकि भारतीय लोकतंत्र के आसमान में खो चुके अपने वजूद को वह वापस ला सके। वैसे भी पूरी तरह से इस बार के रीवैवल प्लान का श्रेय कांग्रेस के ब्रांड राहुल को ही जाता है। उनने ही लोकसभा चुनाव में यूपी और बिहार में बिना क्षेत्रीय दलों के चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया था। यानी यह कहना राहुल का ही है कि पहले ख़ुद को आजमाएंगे, फिर जरूरत पड़ी तो गठबंधन धर्म निभाएंगे। और राहुल बाबा का यही फार्मूला उन्हें और उनकी पार्टी के सीए ताज बाँध गया। कांग्रेस ने हाल में यह फ़ैसला लिया है कि वह राहुल का जन्म दिन, जो कि १९ जून को पड़ता है, को यूपी में सभी जाती के लोगों के साथ मिलकर मनायेगी। ताकि इससे मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को वह झटककर विधान सभा चुनाव में सफलता का स्वाद चख सके और उसके बाद वह इसका इस्तेमाल करे दिल्ली के सिंघासन के लिए। यूपी में अब बसपा के बाद कांग्रेस ने भी सोशल इंजीनियरिंग का रास्ता काफ़ी हद तक चुन लिया है। पार्टी राहुल के जन्मदिन के अवसर पर बसपा की वोट बैंक में सेंध लगाने की योजना बना रही है। इसके तहत राहुल के जन्मदिन को समरसता दिवस के रूप में भी मनाने कि योजना है। बताया जाता है कि प्रदेश कांग्रेस १९ जून को राहुल के जन्मदिन पर दलित बहुल इलाकों में सामुदायिक समारोहों का आयोजन करेगी और इस दिन सहभोग भी आयोजित किए जायेंगे, जिनमे पार्टी जनों के आलावा सभी समुदायों के लोगों को आमंत्रित किया जाएगा। मालूम हो कि हाल के आम चुनाव परिणामों से उत्साहित कांग्रेस पहले भी बेबाक तरीके से कह चुकी है कि वह २०१२ में होने वाले विधानसभा चुनाव में प्रदेश अपनी सफलता बनने के लिए कोई कोर कसार नही छोडेगी। यूपी तो यूपी ही है, बिहार के विस चुनाव के लिए भी जीत से लबरेज कांग्रेस ने कमर कास ली है और आम चुनाव कि तर्ज पर उसने यह भी कह डाला है कि २०१० के चुनाव में वह पूरी तरह से बिहार में अकेले चुनाव लडेगी।

हालाँकि राहुल ने यह भी एक बार स्वीकार किया था कि अगर कांग्रेस अपने दम पर केन्द्र में सत्ता में आना चाहती है तो उसे यूपी में सबसे ज्यादा सीट हासिल करनी होगी। बहरहाल कांग्रेस ने यह दांव उस समय खेला है, जब पिछले २० वर्षों से प्रदेश मी हाशियें पर गयी पार्टी ने हाल में लोकसभा चुनाव में राज्य में एक बार फिर अपने कदम मजबूत किए हैं। इससे एक बार फिर एकला चलो कि रणनीति को बल मिलता है।