संवेदनाशून्य हो चुके हैं सभी। लिखने को मजबूर किया उस आंखों देखे दृश्य ने जिस पर हिन्दुस्तान की सरजमीं पर खड़े होकर तो विश्वास ही नही किया जा सकता। स्तब्ध होकर खड़ा रह गया उस शाम को मेट्रो सिटी के एक चौराहे पर।
किसी को किसी से जैसे कोई मतलब ही नही है। और मतलब रखने वाला इंसान या तो मूर्ख कहा जाता है या फिर बना दिया जाता है जबरन समाजसेवी। शाम को सूर्यभगवान् ढलने को थे की तभी एक मेट्रो सिटी की सड़क पर फुटबाल की तरह चलती गाड़ियों के बीच एक मोटरसाईकिल सवार का फिसलकर गिरना हुआ.... । उस समय वहां मौजूद या फिर यूं कह ले की आसपास से गुजरने वालो के रोंगटें खड़ा कर देने के लिए यह पर्याप्त था। उस बन्दे के पास जाना तो दूर आसपास वालों ने उसे उठाने की जहमत तक नही उठाई। और तो और वाहनों की रफ़्तार भी थमने का नाम नही ले रही थी। ज्यों....ज्यों शाम होती जा रही थी...ठीक वैसे.....वैसेहीलोगों को अपने गन्तय तक पहुँचने की चिंता सताए जा रही थी। बीच में पड़ा मोटरसाईकिल सवार जो गिरनेसे सहमा हुआ था......उसे तो अब यह डर सताने लगा की जो बचा-खुचा है कहीं वह भी न चला जाए। बेचारा मरता क्या न करता.....जस का तस् पड़ा रहा। मौके पर मौजूद एक व्यक्ती ने जाकर उसकी जैसे भी मदद कर सकता था....वैसे मदद की। शुक्र था ऊपर वाले का की उसका बाल भी बांका नही हुआ। सवाल यहाँ यह खड़ा हो रहा है की आख़िर लोगों की संवेदनाएं क्यों मर चुकी हैं या फिर ख़त्म हो रही हैं... । अगर किसी का कोई अपना होता तो क्या ऐसे में किसी का वाहन हवा से बातें कर रहा होता........ शायद नहीं।
कोफ्त होती है की यह वाही देश है जहाँ पड़ोसी राज्य पर हमले का दृश्य टीवी में देखकर लोग सिसकियाँ लेने लगते थे। मोका- ऐ-वारदात का दृश्य तो भूल ही जायें। तेज रफ़्तार जिन्दगी में दौड़ते आप और हम....और इनके बीच में पिसती हैं संवेदनाएं।
हर तरफ़ भागते-दौड़ते रास्ते.... ।
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी.... ।
निदा फाजली साहब की ये पक्तियां झकझोरने के लिए काफी हैं.....।
Saturday, November 15, 2008
संवेदनाएं जैसे मर ही चुकी हैं....
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