Saturday, March 28, 2009

सेटिंग ऐसी की बाद में हो बढ़िया गेटिंग

इस बार के चुनावी महासमर में चोटी पार्टियाँ अपने आप को क्षेत्रीय स्तरपर मजबूत करने में जुट गयी हैं। अकेले दम पर चुनाव लड़ने की कूवत रखे ये दल भले ही चुनाव बाद गठबंधन धर्म निभाते हुए किसी बड़ी पार्टी के बैनर टेल आ जाए, लेकिन अभी ये अपने दम पर ही रणभेरी बजाने में जुट गए हैं।

एकला चलो की रणनीति पर इस समय सभी क्षेत्रीय दल चलने पर आमादा हो गए हैं। ये सभी चाह रहे हैं की वो इन आम चुनावों में अधिक से अधिक अपनी यानी अपनी पार्टी की स्थिति मजबूत कर सके, क्योंकि ऐसा करने से उनका ही भला होने वाला है। भला बोले तो हो सकेगी बेहतर तरीके से बैगानिंग। यह सेटिंग इसीलिए हो रही है ताकि चुनाव परिणामों के बाद अच्छी खासी गेत्तिंग हो सके। आज की हर राजनैतिक पार्टी की आला नेता यह बेहतर तरीके से जान रहे हैं की अभी चाहे जो भी जैसे हो, चाहे जितना अलग-थलग पड़कर चुनाव में जुट जाए, लेकिन परिणाम आने के बाद गठबंधन की राजनीति शुरू हो जायेगी। फिर उस समय यह नही देखा जाएगा की चुनावों के पहले किसने कितनी सीटों से चुनाव लाधा था और किसने छोड़ीकिसके लिए कितनी सीट। चुनाव परिणामों के बाद चाहे वह भाजपा हो या फिर कांग्रेस, हर पार्टी के दिग्गजों की यही कोशिश रहेगी की उनके पास अधिक से अधिक संसद आ जाए ताकि वह दिल्ली की राजगद्दी पर आसीन हो सके। हर पार्टी के नेता के दिमाग में यह बात घर कर जाने से सबसे ज्यादा संप्रग और राजग के अस्तित्व को चुनोती मिल रही है। चुनोती इसीलिए की चुनावों के पहले जो इनकी साख को बट्टा लग रहा है, उसकी भरपाई कौन करेगा। आजकल मीडिया में सिर्फ़ यही खबरें छाईरहती है की फलां ने आज ये मोर्च खोल दिया तो फलां ने ये। फलां इसके साथ शामिल हो गए तो फलां किसी और के साथ। और उस फलां को भी धेकिये की वह यह भी कहने से गुरेज नही कर रहा की, उसने जिस पार्टी के साथ सेटिंग कर राखी थी, उससे वह अलग नही हो रहा है।

दिग्गजों के दिमाग तो बस अब यही चल रहा है की इस महासंग्राम में कितनी अधिक से अधिक सीटें हमें मिले और हम इन्ही सीटों के बल पर बेहतरीन गेटिंग लार सकें। यह सब जो आजकल तीसरा और चौथा मोर्चा अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है, वह सिर्फ़ गेटिंग की ही फिराक में है।

Friday, March 27, 2009

तो फिर औचित्य ही क्या है....

....बस इतनी ही शक्ति दी गयी है चुनाव आयोग को। आयोग की क्या सिर्फ़ इतनी ही जिम्मेदारी है की वो शांतिपूर्व तरीके से चुनाव कराये और पार्टियों को बिन मांगी नेक सलाह दे। सलाह भी कोई जरूरी नही है की कोई माने या न मने। जब किसी भी पार्टी को चुनाव आयोग की बातें या फिर यूँ कह ले की सलाह ही नही माननी तो क्यो इतना हल्ला होता है की इधर फलांने आचार संहिता का उल्लंघन कर दिया तो उधर फलां ने। जो जिसके मन में आए बके और जो जिसके मन में आए करे।

यहाँ पर विषपुरूष यानी वरुण गाँधी के भड़काऊ भाषण के मामले का जिक्र हो रहा है। आए दिन भाजपाई और कुछ कथित हिंदू संघटन बार-बार इस बात पर जोर दे रहे हैं की वरुण के साथ ग़लत हो रहा है, वरुण के साथ अन्याय हो रहा है। इस बार के आम चुनावों में यदि सबसे ज्यादा हो-हल्ला हो रहा है, तो सिर्फ़ वरुण के भड़काऊ भाषण के मामले पर ही है। आयोग का वरुण पर फैसला भी आ गया है की उन्होंने जमकर खुल्लम खुल्ला आचार संहिता की धज्जियाँ उडाईहै, लेकिन इस फैसले का क्या कोई आचार डालेगा। आयोग ने तो भाजपा को यहाँ तक सलाह दे डाली की उन्हें आम चुनावों से दूर रखा जाए। वरुण की भगवा पार्टी के दिग्गज तो खुलेआम बयानबाजियां कर रहे हैं की आयोग अपना काम करे। उसका काम सिर्फ़ बेहतर तरीके से चुनाव कराना है न की किसी के बारे में ग़लत तरीके से बयानदेना। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को देखो तो वो कह रहे हैं की वरुण तो चुनाव लडेगा ही और उनने तो तब हदें पार कर दी जब यह कहा की मैं तो उसके प्रचार की लिए पीलीभीत जाऊंगा, हमें किसी से कोई फर्क नही पड़ता। बेंदाजी की हदें पार हो रही हैं। उधर भाजपा के पीऍम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी (जो की इस समय पाक के ऑनलाइन अखबारों में अपने आप को फादर ऑफ़ नेशन शो कर रहे हैं। ) भी कुछ कम नही हैं। वो भी कह रहे हैं की वरुण तो चुनाव लड़कर ही रहेगा। इन्हे क्या है......एक फायर ब्रांड मिलने की खुशी है, जो इनके दिमाग को सांतवे आसमान पर ले जा रही है। यहाँ मैं यह कह रहा हूँ की आयोग को क्यों न इतने अधिकार दिए जाए की यदि कोई उम्मीदवार आचार संहिता का उल्लंघन करता है है तो उसकी जांच के बाद उम्मीदवारी ही रद कर दी जाए। जानकारों का कहना है की आयोग सिर्फ़ अपनी सलाह दे सकता है....इसके अलावा और कुछ भी नही कर सकता....तो फिर क्या करोगे ऐसी सलाह का। जो सजायाफ्ता हो या फिर मानसिक रूप से विशिप्त हो आदि कारणों के चलते आयोग चुनाव ladne से रोक सकता है। जब कोई ग़लत है, तो उसे ग़लत kahne में क्यों भाजपा के दिग्गज gurez कर रहे हैं। ऊपर से आयोग की vishswaniyta पर sawaliya nishaan लगा रहे हैं। साथ ही यह भी kahne से बाज नही आ रहे हैं की वह भाजपा के साथ भेदभाव कर रहा है और वो किसी के हाथों की kathputli है। यह tamasha roj का है। रोज का यही तमाशा है। दक्षिण में कोई ठाकरे नाम का जीव यह कह रहा की ये गाँधी हमारा है तो उत्तर में आडवाणी और राजनाथ। जो ग़लत है तो उसे डंके की चोट पर ग़लत क्यों नही कहा जा रहा। हाथ काटने वाले गाँधी की जरूरत राजनाथ को भी है और आडवाणी को भी। बाल ठाकरे भी इस मामले में कुछ कम नही हैं, उन्होंने तो ऐसे कामों के लिए एक सेना भी गठित कर ली है। चले जाते ठाकरे मुंबई हमलों को अंजाम देने वाले दहशतगर्दों से लड़ने। तब कहीं नजर नही आए, लेकिन ऐसे हाथ काटने वालों की न्यायालयको जरूरत नही है....विश्वास है हमें अपनी न्यायपालिका पर। और शायद इसीलए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वरुण को दोषी पाते हुए उनकी मुकदमा रद करने की याचिका खारिज कर दी। पर बेशर्म वरुण को देखिये तो उन्होंने यहाँ तक कह डाला की अब मैं सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा। अरे वरुण यदि न्यायालयमें न्याय होता है तो उसको भी न्याय मिलेगा, जिसके ख़िलाफ़ भड़काऊ बातें कही है। आपको कोई हक़ नही बनता की आप बेगुनाहों के हाथ काटें चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। या फिर किसी और जाती का। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ये सिर्फ़ आपको बानगी मात्र है...अगर आपको समझ में आ रहा है तो समझ जाइये और सुधार लीजिये अपने आप को.....लेकिन मुझे पता है की आप ऐसा नही करेंगे।

Monday, March 23, 2009

...बख्श दो भाई गाँधी को !

ऐ भाई अब रहने दो.....बख्श दो महात्मा गाँधी को। बहुत हो गया....अब तो बंद कर दो बांटने की राजनीति। पहले देश को बांटा, फिर लोगों को, फिर जाती और धर्म के बीच खड़ी कर दी बड़ी सी दिवार। और अब बांटने पर तुलगए हैं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को। क्या पता बापू को आजादी के आधी शताब्दी बीत जाने के बाद उनके देश के महान नेता उन्हें ही बांटने पर लग जायेंगे। वरुण गाँधी के मुस्लिम विरोधी बयानों ने एकबारगी फिर गाँधी के अस्तित्व को खुल्लम खुल्ला चुनौती दे डाली है।

वरुण का पीलीभीत में दिया गया सांप्रदायिक बयान काफी हद तक बचकाना ही था। अपने बाप यानी संजय की तर्ज पर दौड़ा-दौड़कर नसबंदी करने और महात्मा गाँधी को बुरा-भला कहने जैसे बयानों को देकर वरुण ने अपने मानसिक दिवालियापन का सुबूत दे दिया है। भले ही इस मुस्लिम विरोधी बयान ने चुनाव में कथित हिंदूवादी संघटनों की रगों में खून का संचार औसतन मात्र में कुछ जयादा ही बढ़ा दिया हो, पर इसने गाँधी के अस्तित्व को चुनौती तो दे ही डाली है। गाँधी के वंशज होने के नाते इन्हे कुलतारण कहा जाए तो अतिशयोक्ति नही होगी। आजकल चाहे वह पूरब हो या पश्चिम, हर तरफ़ ये गाँधी हमारा है.....वो गाँधी तुम्हारा है.....और यदि हम गाँधी के पार्टी के न होते तो तुम्हारा बहुत कुछ बिगाड़ लेते....जैसी बातें बड़ी ही आसानी से सुनने को मिल जा रही हैं। कई हिंदूवादी संगठन वरुण के साथ कदम से कदम मिलकर खड़े हो गए हैं, तो कईयों ने उनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। मोर्चा खोला उन्ही लोगों ने, जो अपने आप को कथित धर्मनिरपेक्ष बतातें हैं। महाराष्ट्र की प्रमुख पार्टी शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे तो इस कदर वरुण के कायल हो गए हैं की उन्होंने तो सहर्ष यह करार दे दिया की यह गाँधी तो हमारा है। जो किसी का हाथ काटने से गुरेज नही करता, जो किसी की जान लेने से पहले एकबारगी नही सोचता.....वह गाँधी बाल ठाकरे का है। ठाकरे को लगता है की मुद्दतों से ऐसे ही गाँधी की तलाश थी। दुर्भाग्य था की महात्मा गाँधी वरुण से पहले आ गए। उस गाँधी को ठाकरे जैसे लोगों ने नही कहा था की ये गाँधी हमारा है। ठाकरे को हाँथ-पैर काटने और लोगों को लहूलुहान करने वाला वरुण गाँधी चाहिएन की सत्य की राह पर चलने वाला गाँधी। ऐसा लगता है की ठाकरेजी को तो अब तक कोफ्त होती रही होगी......उस अहिंसा वाले गाँधी से, जिसने सत्य, धर्म और अहिंसा की राह पर चलकर ठाकरे जैसे लोगों को चैन की नींद सोने की लिए जगह मुहैया कराई। कोफ्त होती रही होगी उस गाँधी से जिसने हमेशा पहले देश का सोचा, देश की जनता का सोचा न की किसी व्यक्ति विशेष या किसी जाती विशेष का। मतलब साफ़ है की आज के राजनेताओं को अब लाठी वाला नही, बन्दूक और तलवार वाला गाँधी चाहिए। जो जब चाहे, कहीं भी चाहे किसी का गला और किसीको भी लहूलुहान कर सकता हो।

संघियों और कट्टर हिंदू संग्तनों की तो मनो बांछे खिल गयी हों। बड़े दिनों बाद उन्हें कोई सिरफिरा फिरेब्रद नेता मिला है.....और देर क्या थी ले लिया उसे हांथो-हाँथ। १५वी लोकसभा के चुनावने तो गाँधी पर एक नयी बहस को जन्म दे डाला है। कुछ कथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं को तो मनो बैठे बिठाये मुद्दा मिल गया हो। राजद के लालू यादव ने वरुण को तो यहाँ तक कह डाला की अगर मैं गृहमंत्री होता तो वरुण को तो निपटा ही देता। अब पता नही कौन किसे नाप रहा है, या फिर है नापने की फिराक में। गुजारिश बस इतनी है की बख्श दो गाँधी को....।

पाक बुद्धजीवी चिंतित:
वरुण के मुस्लिम विरोधी बयानों से पकिस्तान के बुद्धजीवी वर्ग में कोहराम मच गया है। मशहूर ई जिंक पाक टी हाउस के संपादक रजा रूमी का कहना है की वरुण यदि भारत के चुनावों में निर्वाचित हो जाते है तो पाक उनका अगला निशाना होगा। गाँधी की मुस्लिमों के बारे में टिप्पणिया हमारे लिए चिंता का विषय है, क्योंकी इसमे हमें घृणा करनेवालों की जमात बताया गया है। यदि हमारे इस्लामियों और जेहादियों पर दुनिया की नजर आती है तो वरुण जैसे मूर्खों को चिंता नही करनी चाहिए। बुद्धजीवियों का कहना है की कल्पना करिए की अगर वरुण सत्ता में आ जाते हैं तो, निश्चित रूप से हमारे सर कलम कर दिए जाने चाहिए। क्योंकी हमारे नाम डरावने हैं और हम मुस्लिम हैं।

Sunday, March 22, 2009

पहले ख़ुद को आजमाएंगे, जरूरत हुई तो गठबंधन धर्म निभाएंगे

धर्मनिरपेक्ष पार्टी का चोल ओढे कांग्रेस इस समय एकला चलो की नीति पर चलने को आमादा हो गई है। पहले उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और अब बिहार-झारखण्ड में लालू यादव से अलग रहकर चुनाव लड़ने की पार्टी की रणनीति के पीछे पार्टी के युआ नेता राहुल गाँधी का दिमाग बताया जा रहा है। इसे पार्टी के दिग्गज राहुल रिवाइवल प्लान कहने से भी गुरेज नही कर रहे हैं। इसके तहत कांग्रेस अपने आप को उत्तर भारत में अकेला खड़ा करने की कोशिश में जुट गयी है।

दिग्गजों का मानना है की उत्तर भारत में गठबंधन धर्म निभाते-निभाते पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में तो पार्टी के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है। मालूम हो की ये दोनों सूबे १२० संसद द्सदन में भेजते हैं। वर्ष १९९८ के लोकसभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस को ७.२७ फीसद वोट मिले थे, तब सूबे से झारखण्ड अलग नही हुआ था। लेकिन वर्ष २००४ में गठबंधन के बाद मत फीसद घटकर करीब ४.४९ पर आकर सिमट गया था। वहीं उत्तर प्रदेश में पार्टीको १९९८ में ६.०२ फीसद वोट, जबकि २००४ में वोट फीसद बढ़कर १२.४ फीसद हो गया। पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं की हमारी कोशिश रही है की हम धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक मंच पर ला सकें। लेकिन यदि हमारे सहयोगी गठबंधन का धर्म निभाने के लिए तैयार नही हैं, तो हम अकेले ही चुनाव लड़ सकते हैं। वैसे भी पार्टी ने इन राज्यों में पहले काफ़ी लंबे समय तक राज किया है। वैसे भी राहुल ने देश के युआवों को अपनी तरफ़ मोड़ना शुरू कर दिया है। पार्टी के युआ नेता देश के सभी राज्यों में जा-जाकर युआवों को अपनी और आकर्षित करने में जुट गए हैं। बकौल तिवारी १९९८ मी पंचमढ़ी में हुए अधिवेशन में एकला चलो की रणनीति तय की थी, लेकिन जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने ६ साल तक गठबंधन सरकार चलायी, उसके बाद कांग्रेस ने भी रीजनल दलों की तरफ़ अपना झुकाव बढ़ा दिया। २००३ के शिमला अधिवेशन में पार्टी ने अपनी दिशा बदली और २००४ में सहयोगी दलों के साथ मिलकर संप्रग की सरकार बनायी, लेकिन ऐसा करने में पार्टी ने उत्तर प्रदेश और बिहार में अपना जनाधार खो दिया।

दिग्गजों का मानना है की राहुल ने कांग्रेस को मजबूत करने का बीनाउठा लिया है। राहुल की योजना है की पार्टी को अब किसी रीजनल दल की तरफ़ देखना न पड़े। हालाँकि मनीष बड़ी ही साफगोई से इस बात को भी कहने से नही चूकते हैं की यदि हममें कुछ खामी रह जाती है, तो हम गठबंधन धर्म निभाने से भी नही चूकेंगे। राहुल के इस प्लान के तहत हम उत्तर प्रदेश और बिहार में अकेले दम पर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लडेंगे। यदि कोई पार्टी यह सोचती है की कांग्रेस के बिना वह धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लड़ लेगी, तो यह उसकी भूल होगी। बिना किसी सहयोग के चुनाव लड़ने से कार्यकर्ताओं औत पार्टी नेताओं का उत्साह दुगुना रहेगा और वे बिना किसी दबाव के पार्टी हितों को ध्यान में रखते हुए बेहतरीन कदम उठाने से परहेज नही करेंगे। (राज एक्सप्रेस, भोपाल के २२ मार्च २००९ के अंक में प्रकाशित )