Thursday, October 30, 2008

जिम्मेदारी तो तय होनी ही चाहिए......

कब तक यूँ ही चलता रहेगा.....। आख़िर अब वक्त आ गया है की खबरिया चैनलों की कुछ जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। लगनी ही चाहिए न्यूज़ चैनलों पर बंदिशें। कुछ भी समझ में नही आता तथाकथित न्यूज़ चैनलों के आकाओं को।
वीरवार को असम में हुए धमाकों के ख़बर के प्रसारण के दौरान कुछ ऐसी तसवीरें बार-बार दिखाई जा रही थी, जिन्हें देखकर तीस साल की उम्र वाले की रूह काँप जा रही थी, तो भला बताइए अगर उस वक्त कोई बच्चा इन तस्वीरों को देख रहा होगा तो उसका क्या हाल हो रहा होगा। करीब एक बजे के आसपास ज्यों ही मेरी नजर एक तथाकथित खबरिया चैनल पर पड़ी तो उस पर ताबड़तोड़ असम में हुए धमाकों के विचलित कर देने वाली तसवीरें दिखायी जा रही थी। उस समय तक तकरीबन पाँच लोगों के मरने के पुष्टि हुयी थी। ऊपर लाल पट्टी......नीचे लाल पट्टी और बीच में चल रही थी दिल को झकझोरने वाली तसवीरें। हर एक मिनट के अन्तराल पर नजर आ रही थी वही कप-कंपा देने वाली तसवीरें। पता नही इन चैनलों के आकाओं को कब समझ आयेगी कि ऐसी तसवीरें दिखाके वे कौन सी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं। बार-बार टीवी कैमरे के सामने खून से लथपथ या फिर यूँ कह लें कि इससे सना हुआ एक व्यक्ति का दिखायी देना रोंगटें खड़ा करने के लिए काफी था। ऐसी तसवीरें एक ज़माने या इस तरह कह लें की आज भी समाचार पत्रों में दिए जाने से पहले दस बार सोचा जाता है। समाचार संपादक या फिर संपादक इस बात की दुहाई देने लगते हैं की सुबह जब हमारा अखबार हमारे पाठक के पास जाए तो, हमें यह भी ख्याल रखना चाहिए की उसकी मुलाकात डर से न हो। हमारा मकसद किसी को डराना नही हैं, बल्कि मकसद है तो सिर्फ़ एक...... आम जनमानस को एक तथ्यपरक ख़बर से अवगत कराना। लेकिन टीआरपी की दौड़ में आगे रहने के लिए ये खबरिया चैनल इतने पागल हो चुके हैं की, उन्हें इस बात का जरा भी भान नही होता की उनकी इन हरक़तों से जनमानस पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अब इस पर कुछ लोगों का ये तर्क होगा की हम तो आइना है......जैसा चेहरा होगा, वैसा ही दिखेगा। मैं यहाँ ये नही कह रहा की आप पूरी तरह से आइना न बनें, लेकिन मैं यहाँ यह भी कहने से कत्तई नही चुकूँगा की आपको किसी को भयावह तसवीरें दिखाने का अधिकार नही है। इतना भी साफ़ आइना मत बनिए की आपके भाइयों को ही अपना चेहरा देखने से डर लगने लगे। वरिष्ठ पत्रकारों को अक्सर सेमिनारों और सम्मेलनों में इन सब चीजो से पत्रकारिता के अंकुरित हो रहे बीजों को बचने के लिए कहा जाता है। लेकिन क्या वे जो सेमिनारों में बोलते हैं....उस पर पाँच मिनट भी गौर करते हैं...शायद नही। अपनी-अपनी जगह पहुंचकर सब कुछ भूल जाते हैं....जो उन्होंने कहीं बोला था।
अब वक्त आ गया है की इन पर या यूँ कह लें की इस तरह के प्रसारण पर रोक लगनी ही चाहिए। बाकायदा इसे रोकने के लिए एक पैनल का गठन भी किया जाना चाहिए की आख़िर उनकी सीमाएं क्या हैं और उनको लाँघने में इसका क्या खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। एक चीज और पैनल में चैनल के आका न शामिल किए जाए.....समाज के प्रबुद्ध लोगों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए, जो डाल सकें बेलगाम होते चैनलों के पैर में बेडिया......जंजीरें.....जिन्हें तोड़ने से पहले....एक बार नही, उन्हें कम से कम दस बार सोचना पड़े.....।

Monday, October 6, 2008

शर्म आती है.......भारत माता की जय....

ये तमाचा है...हर उस हिन्दुस्तानी के गाल पर जो गर्व से लबरेज होकर पन्द्रह और छब्बीस जनवरी को भारत माता की जय-जय कार लगाता हुआ चलता है। और सीना तान के कहता है की उसे अपने इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और यहाँ के बाशिंदों पर नाज है।
उड़ीसा के कंधमाल जिले की घटना हमारा सर शर्म से झुका देने के लिए काफ़ी है। कोफ्त होती है....जब हमारे हिंदूवादी संगठनों की तरफ़ से अल्पसंख्यकों पर कहर बरपाया जाता है। खासकर जब इनकी क्रोधाग्नि में झुलस जाते हैं स्त्री और नौनिहाल। कंधमाल जिले में पच्चीस अगस्त को हुई हिंसा के दौरान एक नन के साथ हुए दुराचार को याद कर रोयें खड़े हो जाते हैं। हदें तो तब पार हो गयी जब एक महिला को कुछ अतिवादी सगठनों ने भारत माता की जय........भारत माता की जय...के नारे लगाते हुए निर्वस्त्र घुमाया........। इन हिंदू अति वादी सगठनों ने भारत माता तक को नही बख्शा। क्या भारत माता यही चाहती है की उनके सुपुत्र किसी बेसहारी महिला को निर्वस्त्र घुमाते हुए उसकी जय- जय कार लगायें। सच बताऊँ तो कभी-कभी शर्म आती है की यह वही धरती है जहाँ कभी पांचाली द्रोपदी की लाज बचाने के लिए ख़ुद मुरलीधर को आना पड़ा था। इससे बड़ी हुक्मरानों के लिए शर्म की बात क्या कोई और हो सकती है। इनमें से कुछ हुक्मरान तो इस पर भी राजनीति करने से नही बाज आ रहे है। राज्य सरकार को नन से दुराचार मामले की जानकारी पूरे पाँच हफ्ते बाद हुई। अब बताये उस निकम्मी राज्य सरकार से न्याय की क्या उम्मीद की जाए। इस राज्य में भाजपा समर्थित सरकार है......तो क्या अब न्याय इस परिवार समेत उनको मिल पायेगा जो इस हिंसा की गोद में जा समायें हैं। अल्पसंख्यकों पर गाज २३ अगस्त को विहिप नेता की मौत के बाद गिरी थी। फिर क्या था....मच गया पूरे इलाके में कोहराम, जो की अब तक मचा हुआ है। बहरहाल एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में ये सब शोभा नही देता। जिस नन के साथ दुष्कर्म हुआ था, उसका अभागा पिता दुर्गा पूजा में मशगूल था। उस अभागे पिता का इस पूरी घटना पर महज यही कहना है की दोषियों को सजा माँ दुर्गा ही देंगी। इससे बड़ा किसी राष्ट्र के लिए और क्या दुर्भाग्य हो सकता है, जहाँ के बाशिंदे इन्साफ के लिए सिर्फ़ परमेश्वर पर ही आस टिकाये हुए हो। अब बेचारे असहाय माता-पिता को ये भी पता नही हैं की उनकी राज दुलारी कहां है या फिर किस हालत में है।
यह सब ऐसे समय हुआ है जब वैटिकन की ओर से भारत की पहली नन को संत की उपाधि से नवाजे जाने की घोषणा हुई।सिस्टर अल्फोंजा केरल की रहने वाली हैं। शायद इसी के चलते केन्द्र की मनमोहन सरकार ने उड़ीसा सरकार पर जल्द से जल्द इस मामले को निपटा लेने की नसीहत भी दे डाली है। अब यहाँ ये सवाल उठता है की जब कहीं बम विस्फोट होते हैं तो हमारी पुलिस, जो विस्फोट होने के बाद ही जागती हैं, इसको अंजाम देने वाले मुखिया को खोजने निकल पड़ती है। तो क्या इस क्रूरतम घटना को अंजाम देने वाले मुखिया को हमारी पुलिस खोज निकालने में सफल हो पायेगी......जवाब चाहिए....।

चल पड़े साथ-साथ..........

हर रोज होती है मेरी मैं के साथ लड़ाई।
वो कहता है की मैं बड़ा तो वो कहता है की मैं।
इसी बहस से ही जग में होता है उजियारा।
तो इसी के साथ पसर जाता है चहूँ ओर
और अँधियारा।
चांदनी रात भी इनकी कोई चैन से नही गुजरती।
सपनों में भी ठानते हैं ये एक-दूसरे से रार।
एक दिन मैंने मैं से पूछा, बता तेरा वजूद क्या है।
झल्लाए मैं ने कहा जिस दिन मैं नही, उस
दिन तू नही।
शून्य से शिखर तक का रास्ता मेरे से ही
होकर जाता है।
जिस दिन मैंने साथ छोड़ा उस दिन तू कुछ नही।
जिसका मैं नही उसका इस धरा में कोई वजूद नही।
अब मैं ने पूछा........बता तेरी रजा क्या है।
घबराए मैंने न आव देखा न ताव....... ।
सहमा-सहमा बोला जिसका तू नही उसका
मैं नही.... ।
.........साथ ही बोला चल अपनों के लिए
तू भी समर्पित।

Friday, October 3, 2008

ख़ुद ही न कर लें मिस्टर टेन परसेंट बेडा गर्क

मार्क ट्वैन ने सच ही कहा है कि मनुष्य बुलंदी या फिर यूँ कह ले कि समृधि के शिखर पर परमेश्वर के आशीर्वाद से पहुँचता है और अपनी दुर्गति के लिए वह ख़ुद ही जिम्मेवार होता है। ऐसा ही कुछ अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के सर्वोच्च पद पर हाल में आसीन हुए व्यक्ति के साथ देखने को मिल रहा है। और जो अभी तक नही हुआ वो आने वाले समय में हो ही जाएगा।
यहाँ बात हाल में पाक राष्ट्रपति का पद पाने वाले आसिफ अली जरदारी की हो रही है। मालूम हो की जरदारी कुछ समय पहले बम विस्फोट में मारी गयी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की नेत्री बेनजीर भुट्टो के ही पति हैं। यदि जरदारी का इतिहास खंगाला जाए तो....कुछ भी ऐसा नही मिलता है......जिसके बलबूते पाकिस्तान की अवाम अपने इस नए-नवेले राष्ट्रपति पर नाज कर सके। उल्टा इसके लिए उसे अपना सर शर्म से झुकाना पड़
सकता है। पाकिस्तान की अवाम और सियासी गलियारों में मिस्टर टेन परसेंट के नाम से जाने जाने वाले मियां जरदारी कितनी हद तक पाकिस्तान को आर्थिक और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत कर पाएंगे......ये तो अल्लाह ही जाने। मिस्टर टेन परसेंट के उपनाम से इन्हे इसीलिए जाना जाने लगा क्योंकि इनका नाम किसी भी सौदे में कम से कम दस फीसद दलाली खाने वालों की सूची में अव्वल था। अब आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं की इस समय आपका पड़ोसी मुल्क किसके हांथो में हैं। बागडोर सम्हालते ही इनकी कश्मीर को लेकर की गयी टिप्पडी को भी भारत के हित में देखना उचित नही होगा। बहरहाल अब भारत को कश्मीर मामले पर फूँक-फूँक कर कदम रखने होंगे।
जैसे हालात इस समय पाक में हैं....उन्हें देखकर तो ऐसा नही लगता की पाक की असली आवाम इनकी हरकतों को पसंद करती हो। हाल में तो अपने नवेले राष्ट्रपति की दीवानगी के ख़िलाफ़ अंदरखाते पाक की हुकूमत चला रही लाल मस्जिद ने फतवा ही निकाल दिया। मालूम हो की अपनी विदेश यात्रा के दौरान जरदारी ने अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी से उपराष्ट्रपति की उम्मीदवार सारा पालिन की सुन्दरता में इतने कसीदे पढ़ दिए की उनको इसके लिए चारो और आलोचना झेलनी पड़ी। जरदारी को कहाँ इसका अंदाजा था की सर मुंडाते ही ओले पड़ जायेंगे। शायद हो सकता हो की उनके इस कसीदे के पीछे कुछ राजनैतिक कारन भी रहे हो, लेकिन इस बात पर भी कोई संदेह नही होना चाहिए की यह सब उनकी कुर्सी और उसकी गरिमा के अनुरूप नही था।
बात शीशे की तरह साफ़ है की जितने मुश्किलात का सामना भारत को पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ के दिनों में नही करना पड़ा है, उतने ही मुश्किलातों से अब दो चार होने के लिए शांतिप्रिय भारत को अपनी कमर कस लेनी चाहिए।

.....एक नया आसमां

पता नही क्यो...नही है आदत भीड़ में खो जाने की।
भीड़ में शामिल हो... ख़ुद का वजूद मिटा देने की।
कुछ अलग करने की चाहत मन में सँजोकर।
निकल पड़े है एक नया आसमां बनाने।
उस नए आसमां में भी एक ही चाँद होगा।
अनगिनत लुभाते टिमटिमाते तारों के बीच।
जो देगा शीतलता सबको पूर्णमासी के चाँद की तरह।
अपनी फितरत में शामिल नही सफर अधूरा छोड़ना।
मिलता है सुकून मंजिल के दर पर ही पहुंचकर।
अरे सफर तो कमबख्त सफर ही होता है..........।
बोझिल
...., उबाऊ....., थकाऊ......और पकाऊ.....।
वो सफर.....सफर ही क्या, जिसमें काटों का पथ न हो।
आख़िर निकल जो पड़े हैं... एक नए आसमां
बनाने
का ख्वाब संजोये..............

Wednesday, October 1, 2008

जन्नत के साढे पाँच कदम......

अमिय बड़ा खुश था, जब से उसके कदम
जन्नत में पड़े।
कौन नही चाहता, आख़िर उसके कदम भी
जन्नत में पड़े।
जब से आँखें चार हुई, तब से जन्नत में ही
गोते लगा रहा था।
फिर क्या था, शुरू हो गया सपनो के महल
बनने का सिलसिला।
ईट भी आ गया और गारा भी, मतवाला हो
ख़ुद जुट गया महल बनाने में।
मदमस्त भोरें को जरा भी अहसास न था कि, महल
बनाने को कुछ और भी चाहिए।
मन में कुछ उलझन और बैचैनी लिए, जोड़ता
चला जा रहा था ईट से ईट।
क्या पता था अपनी धुन में रमे भोरें को
कि, उसकी नींव ही कमजोर है।
पल-पल नीचे गिरते जा रहे गारे को, उठा-उठा
कर जोड़ता चला गया।
अचानक धड़ाम कि आवाज के साथ, ज्यों ही
वो बिस्तर से नीचे गिरा।
रेत की तरह बिखर गया, बेफिक्र भोरें का
सपनो का महल..........।

...यदि लग जाए बचपन का तड़का

आज भी याद कर आंखों में हलकी सी नमी आ जाती है और होने लगती है मन में अजीब सी उथल पुथल। महीनों पहले से ही प्लानिंग बनने लगती थी कि इस बार क्या करें या न करें....। बात हो रही है त्योहारों की...उसमें किस तरह शामिल होया जाए......आख़िर मन ही तो है.....इसे कैसे समझाया जा सकता है। समझाने के कई तरीके भी है और इसे मनाने के भी लेकिन नतीजा सिफर........
मन में तरह तरह की उम्मीदें हिलोरें लेने लगती थी। अभी भी याद है जैसे ही कोई त्योहार अपनी दस्तक देता था , तो मन ही मन लड्डू फूटने लगते थे..... की इस बार तो मजा आ ही जाएगा। रात रात भर नींद नही आती थी इस बैचैनी में की कही इस बार त्योहार का रंग फीका न पड़ जाए। घर से चोरी छिपे जाकर त्योहार का लुत्फ़ उठाना। किसी त्योंहार के आते ही घर की ओर तुंरत अपना बैग उठाकर चल देना। बिना किसी फिक्र के.....मस्ती में मदमस्त होकर। बचपन के साथ साथ यदि त्योहारों को मिला दिया जाए.....तो चार चाँद लगना स्वाभाविक ही है। डाट भी पड़ती थी.....कि ऐसा मत करो और वैसा न करो....लेकिन उसका मजा भी तो अलग ही था। पर मानने वाले कहाँ थे। किसी बड़े के समझाने का असर बस थोड़ा देर ही रहता था....और उसके बाद ऐसे गायब हो जाता था...जैसे गधे के सर से सींग। एक तो त्योहारों का नशा सवार रहता था और उस पर जो बची खुची कसर रहती थी तो लग जाता तो बचपन का तड़का। फिर क्या था.......त्योहारों का मजा वो भी घर वालों के साथ डबल हो जाता था। कभी कभी कोई बड़ा आकर समझाता था कि यार अब तो आदतें बदल डालो...अब तुम लोग बड़े हो गए हो.....। और अब बड़े होने या यूँ कह ले की जब ख़ुद को यह अहसास होने लगा कि अब हम बड़े हो गए हैं तो मन में हलकी सी एक कसक लिये कि यार अब बड़े हो गए कोई भी काम करते हैं और इस तरह के काम करना हमारे बड़प्पन पर दाग लगा सकते है......बिना यह सोचे कि दाग तो चाँद में भी होता है।
सच बताऊँ तो आज की तारीख में त्योहारों के मायने ही बदल गए है। लोग भी तो बदल गए हैं। जब लोग बदल रहे हैं तो उनकी सोच बदलना भी तो जायज ही है। लेकिन सब कुछ तो नही न बदलता......सब लोग भी नही बदलते......। यही पर निदा फाजली साहब की कुछ पक्तियां याद आ रही हैं, जो कुछ इस तरह हैं...
पुरानी एक मुंडेर पर, वक्त बैठा कबूतरों को उड़ा रहा है।
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं, कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं।