Sunday, April 24, 2011

डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है

भुलाए नहीं भूलती वो 2010 के मई महीने में वैष्णो देवी की यात्रा। उस यात्रा में मुझे पता चला कि आखिर मौत किसे कहते हैं और ये कैसी होती है। किस तरह मैंने मर्द होने के दंभ के चलते अपने डर को किसी से साझा नहीं किया और डर मौत का, जो मुझे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था, तब जाकर खत्म हुआ जब मैं मां के दर पर उस मनहूस बस से उतरा। माफ कीजिएगा, वो बस सिर्फ मेरे ही लिए मनहूस थी। अब चाहे वो मेरी ज्यादा सतर्कता के कारण मनहूस हो गई थी या फिर ये सिर्फ मेरे पत्रकारिता के कीड़े से संचालित होने वाले दिमाग की उपज के कारण।

हुआ यूं कि चंडीगढ़ से रात नौ बजे मैं जम्मू के लिए रवाना हुआ। सुबह छह बजे जम्मू पहुंचा और फिर वहां से जैसे ही कटड़ा के लिए बस (जेके 02 जे 0365) में बैठा, वैसे ही दस मिनट बाद शुरुआत हो गई डर की। खुद के बम धमाके में मारे जाने की। जिसके होने के बाद मेरे शरीर का कोई भी हिस्सा, परिजनों को नहीं मिलने वाला था। बस में जिस सीट में मैं बैठा हुआ था, उसके ठीक बाईं ओर बगल वाली सीट के ऊपर जहां सामान रखा जाता है, वहां रखे एक पैकेट से मोबाइल नीचे गिरा। बस जैसे ही वह बेमालिक वाला मोबाइल गिरा, वैसे ही शुरू हो गई मेरे अंदर डर की रूपरेखा खिंचनी। कंडक्टर ने जैसे ही बस में सवार लोगों की ना सुनकर कि ये हमारा मोबाइल नहीं है, उसको वापस वहां रखा जहां से वो गिरा था, मेरे मन में मोबाइल के अंदर बम फिट होने की तस्वीर बन गई। ये मेरा दोष नहीं था, ये मेरे पत्रकार होने और जम्मू के बारे में मैंने जितना सुना रखा था वो सिर्फ ये उसी की ही उपज थी। बस क्या था, शुरू हो गया मेरे पत्रकारीय दिमाग का दौडऩा। बस में गाना चल रहा था, कितनी बेचैन होकर मैं तुमसे मिली...सभी बस सवार मन में मां वैष्णो देवी की तस्वीर जमाए इस गाने में झूम रहे थे और मैं इस गाने के साथ धमाका होने के डर के बीच अपने अच्छे और बुरे पल याद करने में लगा हुआ था। मेरा बाईं तरफ का सिर धमाके होने के डर से इतना भारी हो गया कि लगा कि बस अब मेरा टाइम हो चुका है। मेरे चीथड़े उडऩे वाले हैं।

मुझे बेचैन करने के बाद अगला गाना आया... मेरी भी जिंदगी में खुशियों का पल आएगा...। लेकिन इधर तो दुखों का पहाड़ मेरे ऊपर टूट रहा था, ऐसा लग रहा था मानो इस गाने के बीच में ही मैं इस दुनिया से उठा जाऊंगा। ढलान होने के कारण बस ब्रेक लगा-लगाकर चल रही थी, जिसके चलते उसके पहियों से घर्र-घर्र की आवाज उठ रही थी, जिसे मैं समझ रहा था कि कोई मोबाइल में रिंग कर रहा है और वह वाइब्रेशन में होने के कारण घर्र-घर्र की आवाज कर रहा है। यहां एक चीज मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि अक्सर मैंने सुन रखा था या फिर कहें कि यह चीज मन में पूरी तरह से साफ थी कि मोबाइल में जैसे ही घंटी बजती है, वैसे ही उसके अंदर फिट बम फट जाता है। यहां ये मन में आना स्वाभाविक है कि मैं जो उस समय मौत के खौफ से जूझ रहा था, ये गाना और कई चीजें मुझे याद कैसे। तो ये सिर्फ मेरे मन में जो यह मान चुका था कि 99 फीसदी मेरा उडऩा तय है और 1 फीसदी जो यह सोच रहा था कि अगर मैं बच गया तो मैं कटड़ा पहुंचकर मौत के मुंह से बचकर निकले शीर्षक से अपने अखबार के लिए लाइव स्टोरी भेजूंगा। बहरहाल मैंने एक जागरूक और बहादुर (जो अंदर से बहुत डरा हुआ था) की तरह कंडक्टर को बुलाकर कहा कि भाई अगर ये मोबाइल किसी का नहीं है तो इसे फेंक दो, इसमें कुछ भी हो सकता है।

मेरा इतना ही कहना था कि उसने मेरे बाईं और से उसे उठाकर जिस सीट में मैं बैठा था, मेरे ऊपर सामान रखने वाली जगह में मोबाइल को रख दिया। फिर क्या था, मेरे बाएं हिस्से को उड़ाने वाला डर अब मेरे पूरे शरीर को उड़ाने के लिए मेरे सर के ऊपर आ चुका था। और इस गाने कि जो मेरी रूह को चैन दे, जिंदगी बन गए हो तुम... के साथ ही मेरी रूह डर के कारण कांपने लगी। कुछ देर बाद मां के दर में आने के पहले जहां यात्रियों के सामान की चेकिंग होती है, पुलिसवालों के डर से कंडक्टर ने चलती बस में खिडक़ी से बाहर निकलकर मोबाइल को बस की छत में रख दिया। बस मैंने अपनी एक घंटे की इस यात्रा में अपने बुरे समेत सारे अच्छे पल याद कर लिए। मन बस यही सोच रहा था कि अब तो बुलावा आ ही गया है...मां के दर से नहीं, स्वर्ग से। अरे कम से कम इतना तो उस समय मैं सोच ही सकता था कि मां के दर में मौत मिली है तो नरक से छुटकारा अपने आप ही मिल जाएगा। उस समय मैं मन ही मन में कंडक्टर को इतनी गाली दे रहा था कि हजार के मोबाइल के चक्कर में ये सबकी जान लेगा। इस मोबाइल को वो सूनसान जगह में फेंक क्यों नहीं देता।

अक्सर मैं किसी से न डरने वाला और सामने बोलने वाला आदमी, उस दिन मन में सब कुछ दे रहा था। अरे, उन अंजान लोगों के सामने इज्जत धुलने का डर था कि अगर उनको मेरी असलियत पता चल गई तो क्या सोचेंगे कि मैं इतना डरपोक हूं। खैर छोडि़ए। बस धमाके में अपने शरीर के उडऩे और उसके बाद कोई भी टुकड़ा किसी के हाथ न लगने को सोच-सोचकर कटड़ा बस स्टैंड में बस के पहुंचते ही मैं उससे उतरने वाला सबसे पहला यात्री था। और उतरते ही मेरे मुंह से निकला, डर सबको लगता है... गला सबका सूखता है।

फिर मुझे लगा कि पत्रकार होना कितना खतरनाक भी होता है...