Wednesday, December 24, 2008

जाको राखे साईंया मार सके न कोय...


बरबस ही याद आ जाता है प्रख्यात कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की पुस्तक फाइटर की डायरी का वह मार्मिक अंश, जिसमे पुत्री को जन्म देने पर उसकी माँ को पाँच दिन की नन्ही जान समेत उसके ससुराल वालों का उसे निकाल देना। बिना यह सोचे समझे की आख़िर वह इस मासूम को लेकर कहाँ जायेगी......क्या करेगी.......तो क्या शायद उसे भी चौकीदार बाबा का बेटा ले जाएगा........

कुछ ऐसे वाकये सामने आ जाते है की ईश्वर के अस्तित्व पर आँख मूदें विश्वास करने पर मजबूर होना पड़ता है। मन ही नही शरीर का हर हिस्सा अपने आप बोल पड़ता है की जाको राखे साईंया मार सके न कोय। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले की तहसील अतर्रा में कुछ साल पहले एक ऐसा वाकया हुआ, जिसने निर्धन चौकीदार बाबा के परिवार की इज्जत पर चार-चाँद लगा दिया....सिर्फ़ उनकी नजरों पर जो इस वाकये को जानते हैं। इनकी भी गिनती चार-पाँच में ही सिमट जाती हैं।

चौकीदार
बाबा का बेटा, जो रिक्शा चलाकर अपने और अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करता है, का काम वास्तव में उन कथित समाजसेवियों, रहीसों के मुह पर तमाचा है जो अपने को समाज का सरंक्षक और नैया पार लगाने वाले से कम नही समझते। जैसा मालूम पड़ा उसके मुताबिक उस अत्यन्त निर्धन रिक्शाचालक ने बोरे में बंधी मिली एक नवजात बच्ची को, जिसे दरकार थी उस समय माँ के आँचल की और किसी के दुलार की......उसको उसने सहर्ष अपनाया। और ले जाकर उसको अपनी बेटी की तरह पालने लगा। न जाने वह बेचारी कौन है....कौन है उस मासूम की जीवनदायनी, जिसने इतनी बेरहमी के साथ उसे बोरे में बांधकर रेलवे स्टेशन पर मरने के लिए छोड़ दिया। सच में संवेदनाये तो अब दम तोड़ती नजर आ रही हैं। मामला पुलिस के पास पहुँचा, तो मजमा लगने में देर ही क्या थी......आख़िर क्यों न लगता। मजमे में पहुँचा हर शख्स सिवाय उसको एक दिन का नाटक समझकर ही देखता रहा.......लेकिनउस मासूम को अपनाने आया वह...जिसके ख़ुद खाने का ठिकाना न रहता था। यह एक करार तमाचा है समाज के उस वर्ग पर जो गीता के उपदेश और भलाई के व्याख्यान इधर-उधर देते रहते हैं और मौका पड़ने पर बदल लेते हैं गिरगिट की तरह रंग। जैसा बताया गया उसके मुताबिक अब वह मासूम स्कूल भी जाने लगी है। इतना ही नही वह बेचारी अपना काम करने के अलावा घर के कई कामों में भी अब बताने लगी है अपना हाँथ। यहाँ बार-बार एक ही सवाल मन में उबाल मार रहा है की आख़िर उस नवजात के साथ ऐसा क्यों हुआ। क्या उसे सजा मिली एक लडकी होने की या फिर मामला कुछ दूसरा ही है। चलिए अगर मामला कुछ दूसरा ही है तो भाई उस मासूम को सजा क्यो दी जा रही है। इसे निपटाने के कई बेहतर तरीके भी हैलेकिन यह तरीका तो ठीक नही है। इसे अगर मानसिक दिवालियापन कहा जाए तो ग़लत नही होगा। शायद लोग बेशर्मीपुर्वक यह जानते है की अगर भगवान् ने पेट दिया है तो वह कुछ न कुछ पेट भरने के लिए दाने फेकेगा ही। खैर मामले को छोडिये लेकिन यहाँ एक बात दीगर हैं की अभी भी इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में कुछ छिपे ही सही ऐसे बेहतरीन लोग मौजूद हैं जो नेक काम करते तो रहते है....लेकिन उसकी मलाई खाने के लिए आगे आ जाते है कई बेतुकी संस्थाएं।

धर्म का पता....न जाती का....न किसी और चीज का पता....पता है तो सिर्फ़ यह की वह भगवान् की बनाई एक ऐसी चीज है जिसे यूँ ही नही कहीं फेका जाता। वह भगवान् की देन है और जिसे भगवान् बनाता है उसका ठौर-ठिकाना वह पहले से ही बना देता है। शायद उस मासूम का कुछ दिन का ठिकाना चौकीदार बाबा का घर ही हो।

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