इस बार के चुनावी महासमर में चोटी पार्टियाँ अपने आप को क्षेत्रीय स्तरपर मजबूत करने में जुट गयी हैं। अकेले दम पर चुनाव लड़ने की कूवत रखे ये दल भले ही चुनाव बाद गठबंधन धर्म निभाते हुए किसी बड़ी पार्टी के बैनर टेल आ जाए, लेकिन अभी ये अपने दम पर ही रणभेरी बजाने में जुट गए हैं।
एकला चलो की रणनीति पर इस समय सभी क्षेत्रीय दल चलने पर आमादा हो गए हैं। ये सभी चाह रहे हैं की वो इन आम चुनावों में अधिक से अधिक अपनी यानी अपनी पार्टी की स्थिति मजबूत कर सके, क्योंकि ऐसा करने से उनका ही भला होने वाला है। भला बोले तो हो सकेगी बेहतर तरीके से बैगानिंग। यह सेटिंग इसीलिए हो रही है ताकि चुनाव परिणामों के बाद अच्छी खासी गेत्तिंग हो सके। आज की हर राजनैतिक पार्टी की आला नेता यह बेहतर तरीके से जान रहे हैं की अभी चाहे जो भी जैसे हो, चाहे जितना अलग-थलग पड़कर चुनाव में जुट जाए, लेकिन परिणाम आने के बाद गठबंधन की राजनीति शुरू हो जायेगी। फिर उस समय यह नही देखा जाएगा की चुनावों के पहले किसने कितनी सीटों से चुनाव लाधा था और किसने छोड़ीकिसके लिए कितनी सीट। चुनाव परिणामों के बाद चाहे वह भाजपा हो या फिर कांग्रेस, हर पार्टी के दिग्गजों की यही कोशिश रहेगी की उनके पास अधिक से अधिक संसद आ जाए ताकि वह दिल्ली की राजगद्दी पर आसीन हो सके। हर पार्टी के नेता के दिमाग में यह बात घर कर जाने से सबसे ज्यादा संप्रग और राजग के अस्तित्व को चुनोती मिल रही है। चुनोती इसीलिए की चुनावों के पहले जो इनकी साख को बट्टा लग रहा है, उसकी भरपाई कौन करेगा। आजकल मीडिया में सिर्फ़ यही खबरें छाईरहती है की फलां ने आज ये मोर्च खोल दिया तो फलां ने ये। फलां इसके साथ शामिल हो गए तो फलां किसी और के साथ। और उस फलां को भी धेकिये की वह यह भी कहने से गुरेज नही कर रहा की, उसने जिस पार्टी के साथ सेटिंग कर राखी थी, उससे वह अलग नही हो रहा है।
दिग्गजों के दिमाग तो बस अब यही चल रहा है की इस महासंग्राम में कितनी अधिक से अधिक सीटें हमें मिले और हम इन्ही सीटों के बल पर बेहतरीन गेटिंग लार सकें। यह सब जो आजकल तीसरा और चौथा मोर्चा अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है, वह सिर्फ़ गेटिंग की ही फिराक में है।
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