Wednesday, October 1, 2008

...यदि लग जाए बचपन का तड़का

आज भी याद कर आंखों में हलकी सी नमी आ जाती है और होने लगती है मन में अजीब सी उथल पुथल। महीनों पहले से ही प्लानिंग बनने लगती थी कि इस बार क्या करें या न करें....। बात हो रही है त्योहारों की...उसमें किस तरह शामिल होया जाए......आख़िर मन ही तो है.....इसे कैसे समझाया जा सकता है। समझाने के कई तरीके भी है और इसे मनाने के भी लेकिन नतीजा सिफर........
मन में तरह तरह की उम्मीदें हिलोरें लेने लगती थी। अभी भी याद है जैसे ही कोई त्योहार अपनी दस्तक देता था , तो मन ही मन लड्डू फूटने लगते थे..... की इस बार तो मजा आ ही जाएगा। रात रात भर नींद नही आती थी इस बैचैनी में की कही इस बार त्योहार का रंग फीका न पड़ जाए। घर से चोरी छिपे जाकर त्योहार का लुत्फ़ उठाना। किसी त्योंहार के आते ही घर की ओर तुंरत अपना बैग उठाकर चल देना। बिना किसी फिक्र के.....मस्ती में मदमस्त होकर। बचपन के साथ साथ यदि त्योहारों को मिला दिया जाए.....तो चार चाँद लगना स्वाभाविक ही है। डाट भी पड़ती थी.....कि ऐसा मत करो और वैसा न करो....लेकिन उसका मजा भी तो अलग ही था। पर मानने वाले कहाँ थे। किसी बड़े के समझाने का असर बस थोड़ा देर ही रहता था....और उसके बाद ऐसे गायब हो जाता था...जैसे गधे के सर से सींग। एक तो त्योहारों का नशा सवार रहता था और उस पर जो बची खुची कसर रहती थी तो लग जाता तो बचपन का तड़का। फिर क्या था.......त्योहारों का मजा वो भी घर वालों के साथ डबल हो जाता था। कभी कभी कोई बड़ा आकर समझाता था कि यार अब तो आदतें बदल डालो...अब तुम लोग बड़े हो गए हो.....। और अब बड़े होने या यूँ कह ले की जब ख़ुद को यह अहसास होने लगा कि अब हम बड़े हो गए हैं तो मन में हलकी सी एक कसक लिये कि यार अब बड़े हो गए कोई भी काम करते हैं और इस तरह के काम करना हमारे बड़प्पन पर दाग लगा सकते है......बिना यह सोचे कि दाग तो चाँद में भी होता है।
सच बताऊँ तो आज की तारीख में त्योहारों के मायने ही बदल गए है। लोग भी तो बदल गए हैं। जब लोग बदल रहे हैं तो उनकी सोच बदलना भी तो जायज ही है। लेकिन सब कुछ तो नही न बदलता......सब लोग भी नही बदलते......। यही पर निदा फाजली साहब की कुछ पक्तियां याद आ रही हैं, जो कुछ इस तरह हैं...
पुरानी एक मुंडेर पर, वक्त बैठा कबूतरों को उड़ा रहा है।
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं, कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं।

1 comment:

Debu said...

बाबा मेरे दोस्त .......यह बचपन का तड़का तो अब जवानी क्या बुढापे तक हमारी नाकों को तंग करेगा ......अब तो बस यह चन्द लाईने ही गुनगुनाने को बची हैं.....कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ,वो कागज़ की कस्ती ,वो बारिश का पानी .......क्यूंकि छोड़ आए हम वो गलियाँ .......जिनमे हम सब कभी स्वछन्द घूमा करते थे ...अच्छा है की हम उन्हें शब्दों में ही पिरोकर अपने आज को सुंदर बनाने का प्रयास करें ....