Friday, October 3, 2008

.....एक नया आसमां

पता नही क्यो...नही है आदत भीड़ में खो जाने की।
भीड़ में शामिल हो... ख़ुद का वजूद मिटा देने की।
कुछ अलग करने की चाहत मन में सँजोकर।
निकल पड़े है एक नया आसमां बनाने।
उस नए आसमां में भी एक ही चाँद होगा।
अनगिनत लुभाते टिमटिमाते तारों के बीच।
जो देगा शीतलता सबको पूर्णमासी के चाँद की तरह।
अपनी फितरत में शामिल नही सफर अधूरा छोड़ना।
मिलता है सुकून मंजिल के दर पर ही पहुंचकर।
अरे सफर तो कमबख्त सफर ही होता है..........।
बोझिल
...., उबाऊ....., थकाऊ......और पकाऊ.....।
वो सफर.....सफर ही क्या, जिसमें काटों का पथ न हो।
आख़िर निकल जो पड़े हैं... एक नए आसमां
बनाने
का ख्वाब संजोये..............

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