कब तक यूँ ही चलता रहेगा.....। आख़िर अब वक्त आ गया है की खबरिया चैनलों की कुछ जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। लगनी ही चाहिए न्यूज़ चैनलों पर बंदिशें। कुछ भी समझ में नही आता तथाकथित न्यूज़ चैनलों के आकाओं को।
वीरवार को असम में हुए धमाकों के ख़बर के प्रसारण के दौरान कुछ ऐसी तसवीरें बार-बार दिखाई जा रही थी, जिन्हें देखकर तीस साल की उम्र वाले की रूह काँप जा रही थी, तो भला बताइए अगर उस वक्त कोई बच्चा इन तस्वीरों को देख रहा होगा तो उसका क्या हाल हो रहा होगा। करीब एक बजे के आसपास ज्यों ही मेरी नजर एक तथाकथित खबरिया चैनल पर पड़ी तो उस पर ताबड़तोड़ असम में हुए धमाकों के विचलित कर देने वाली तसवीरें दिखायी जा रही थी। उस समय तक तकरीबन पाँच लोगों के मरने के पुष्टि हुयी थी। ऊपर लाल पट्टी......नीचे लाल पट्टी और बीच में चल रही थी दिल को झकझोरने वाली तसवीरें। हर एक मिनट के अन्तराल पर नजर आ रही थी वही कप-कंपा देने वाली तसवीरें। पता नही इन चैनलों के आकाओं को कब समझ आयेगी कि ऐसी तसवीरें दिखाके वे कौन सी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं। बार-बार टीवी कैमरे के सामने खून से लथपथ या फिर यूँ कह लें कि इससे सना हुआ एक व्यक्ति का दिखायी देना रोंगटें खड़ा करने के लिए काफी था। ऐसी तसवीरें एक ज़माने या इस तरह कह लें की आज भी समाचार पत्रों में दिए जाने से पहले दस बार सोचा जाता है। समाचार संपादक या फिर संपादक इस बात की दुहाई देने लगते हैं की सुबह जब हमारा अखबार हमारे पाठक के पास जाए तो, हमें यह भी ख्याल रखना चाहिए की उसकी मुलाकात डर से न हो। हमारा मकसद किसी को डराना नही हैं, बल्कि मकसद है तो सिर्फ़ एक...... आम जनमानस को एक तथ्यपरक ख़बर से अवगत कराना। लेकिन टीआरपी की दौड़ में आगे रहने के लिए ये खबरिया चैनल इतने पागल हो चुके हैं की, उन्हें इस बात का जरा भी भान नही होता की उनकी इन हरक़तों से जनमानस पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अब इस पर कुछ लोगों का ये तर्क होगा की हम तो आइना है......जैसा चेहरा होगा, वैसा ही दिखेगा। मैं यहाँ ये नही कह रहा की आप पूरी तरह से आइना न बनें, लेकिन मैं यहाँ यह भी कहने से कत्तई नही चुकूँगा की आपको किसी को भयावह तसवीरें दिखाने का अधिकार नही है। इतना भी साफ़ आइना मत बनिए की आपके भाइयों को ही अपना चेहरा देखने से डर लगने लगे। वरिष्ठ पत्रकारों को अक्सर सेमिनारों और सम्मेलनों में इन सब चीजो से पत्रकारिता के अंकुरित हो रहे बीजों को बचने के लिए कहा जाता है। लेकिन क्या वे जो सेमिनारों में बोलते हैं....उस पर पाँच मिनट भी गौर करते हैं...शायद नही। अपनी-अपनी जगह पहुंचकर सब कुछ भूल जाते हैं....जो उन्होंने कहीं बोला था।
अब वक्त आ गया है की इन पर या यूँ कह लें की इस तरह के प्रसारण पर रोक लगनी ही चाहिए। बाकायदा इसे रोकने के लिए एक पैनल का गठन भी किया जाना चाहिए की आख़िर उनकी सीमाएं क्या हैं और उनको लाँघने में इसका क्या खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। एक चीज और पैनल में चैनल के आका न शामिल किए जाए.....समाज के प्रबुद्ध लोगों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए, जो डाल सकें बेलगाम होते चैनलों के पैर में बेडिया......जंजीरें.....जिन्हें तोड़ने से पहले....एक बार नही, उन्हें कम से कम दस बार सोचना पड़े.....।
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