Sunday, December 28, 2008

ठेंगे पर सुश्री के आदेश....

सूबे में क़ानून-व्यवस्था दिन पर दिन बिगड़ती ही जा रही है। पिछले कुछ दिनों से चला माया का जादू अब गायब होने की कगार पर आ रहा है। पार्टी की मुखिया का आदेश जब भला उनके विधायक ही न माने तो भला औरो की बात ही क्या करनी। इंजिनियर मनोज गुप्ता की हत्या से प्रान्त में पैदा हुई तपिश अभी ठंडी भी नही हुई थी की चंदे के बाबत मायावती के सुनाये गए फरमान की धज्जिया ख़ुद उनके विधायक उडाने में जुट गए है।

पूरे मुल्क की मुखिया बन्ने का सपना पाले मायावती से एक भारत का अभिन्न प्रदेश का राज नही संभल पा रहा है। खुदा न खस्ता मायावती को भारतीयों ने एक भी मौका दे दिया तो अभी तो उत्तर प्रदेश में ही धन उगाही हो रही है, फिर तो पूरे देशवासियों को ही इसके लिए अपनी कमर कस लेनी पड़ेगी। मनोज की हत्या को बीते एक हफ्ते का भी समय नही बीता, फिर शुरू हो गयी धन उगाही। बहरहाल इस बार की धन उगाही में किसी की मौत नही हुई वरन उड़ादी गयी है बीएसपी सुप्रीमो मायावती के आदेशो की धज्जियाँ। मीडिया रिपोर्टों को यदि सही माने तो २७ दिसम्बर को मेरठ शहर के टीपी नगर थाने में खुलेआम मायावती के एक विधायक ने उनके जन्मदिन पार्टी को भव्य तरीके से मनाने के लिए चन्दा वसूला। टीपी नगर थाने में सिवालखास एरिया के बीएसपी विधायक विनोद हरित ने डेरा डालकर बहिन मायावती के जन्मदिन के जलसे के लिए चन्दा वसूला। शनिवार सुबह थाने में अपने समर्थको के साथ २ घंटे तक हरित ने डेरा डालकर सुश्री के फरमानों की जमकर धज्जियाँ उड़ाई, लेकिन नतीजा सिफर। मायावती को इस बात की उस दिन जानकारी ही नही हुई, क्योंकी उस दिन वो मशगूल थी मनोज गुप्ता को पीट-पीटकर बड़ी ही बेरहमी से मारने वाले अपनी ही पार्टी के विधायक शेखर तिवारी के नार्को टेस्ट कराने सम्बन्धी बयान मीडिया को देने में। हर मामलों की तरह इस मामले पर भी अब लीपापोती होने लगी है। सभी इस अप्रत्याशित अतीत को भूलने में लग गए है, सिवाय इंजिनियर के परिजनों के। इंजिनियर के बेटे और उसकी अभी-अभी अस्पताल से आई माँ से तो कोई हाल पूछे....की अब वो क्या करेगी। बीएसपी समेत अभी सियासी दल अपनी-अपनी सियासी रोटियां सेंकने में जुट गए हैं। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री इस मामले पर भी राजनीति करने से बाज नही आ रही है। उनके इस बयान से की, तिवारी इसके पहले बीजेपी और कांग्रेस में थे, तो कहीं यह सब उन पार्टियों के इशारों पर तो नही हुआ... पर शर्म आती है। हर तरफ़, जिधर देखो...उधर नजर आ रही है सिर्फ़ आनेवाले चुनावों में वोट जुटाने की ललक। सर्व धर्म समभाव का नारा देकर सत्ता के गलियारों तक पहुँची मायावती का यह नारा अब कहाँ लुप्त हो गया। जरा हरित की बेशर्मी को भी सुन लीजिये.....उन्होंने बड़े बेबाक तरीके से इस पूरे मामले पर अपनी सफाई देते हुए कहा की भाई मैं तो जनसेवक हूँ। थाने में मैं सुनवाई के लिए आया था, और भला अगर वहां किसी ने बहनजी के लिए चन्दा दे भी दिया तो तो भला मैं इसमें क्या कर सकता हूँ। जब कोई दे रहा है.....तो भला मैं क्यों न लूँ। मैंने किसी से कोई जबरदस्ती नही की है। बकौल हरित ऊपर से तीन लाख रूपये चन्दा देने का फरमान आया था, जो की मैंने दस दिन पहले ही भेज दिया है। तो अब बताये यह सब क्या है। किसी ने चन्दा देकर अपने नम्बर बना लिए हैं तो कोई अभी बनाने में जुटा हुआ है आलाकमान की नजरों में अपने नम्बर।

यहाँ मैं आपको बताता चलूँ की ये नम्बर जुड़ते हुए काम आते है हर बार होने वाले चुनावों में। यही उनकी अंकतालिका है और यही उनका है चरित्र प्रमाण पत्र। बात यहाँ है आम आदमी की......जो दिन भर मेहनत करके अपने लिए दो जून की रोटी का इंतजाम करता है......और उसे भुगतनी पड़ती है सत्ता के शीर्ष में बैठे लोगों की करतूत की सजा।

Thursday, December 25, 2008

ये सब माया की ही है माया...

आख़िर एक बार फिर वही हुआ, जिसका डर निरंतर एक ईमानदार और कर्मठ आदमी पर बना रहता है। फिर चढ़ गयी एक बेगुनाह की बलि......और छोड़ दिया गया उसके पीछे रोते और सिसकते परिजनों को। यह पहला कलंक है उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज माया सरकार पर, जिसके एक विधायक ने माया के लिए ही पीट-पीटकर कर दी एक ईमानदार इंजिनियर की हत्या। स्थानीय लोगों और रिपोर्टों की माने तो यह माया लगनी थी उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री और बीएसपी सुप्रीमो बहन मायावती के जन्मदिवस को होने वाले जलसे पर।

विश्व की १०० ताकतवर महिलाओं में शुमार हो चुकी मायावती के एक विधायक ने अपनी ताकत लगाई एक ईमानदार इंजिनियर पर। पता था माया सरकार के इन नुमईन्दों को की इस बार अपनी बहन मायावती के आ रहे जन्मदिन को उन्हें विपक्ष धिक्कार दिवस मनाने पर विवश होना पड़ेगा। माया सरकार के एक होनहार विधायकजी शेखर तिवारी ने बहनजी के जन्मदिवस समारोह को भव्य तरीके से मनाने के लिए औरया में तैनात एक अधिशाषी अभियंता से चंदा उगाही के लिए उसको मार-मारकर अधमरा कर दिया। हदें तो तब पार हो गयी जब विधायकजी और उनके शागिर्दों ने उस अधमरे इंजिनियर को यह कहकर सम्बंधित थाने में फेक दिया की वह उनसे नौकरी करने के बजाय गुंडई कर रहा था। अब विधायकजी....विधायकजी ही थे...भला उनकी ही पार्टी की सरकार सूबे में है.... तो आप ही बताएं एक थानेदार की क्या औकात की वो महानुभाव से कुछ बोल सके। उस बेचारे अधमरे इंजिनियर की हालत बिगड़ती देख थानेदार साहब ने उसे डॉक्टरों के हवाले कर दिया, जहाँ उसे तुंरत ही डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया। न माया मिली न मिले विधायकजी को राम। लाखों रुपये चंदे की मांग करने वाले विधायकजी के ऊपर पहले से ही कई मामले चल रहे हैं। स्थानीय लोगों की माने तो विधायक जी ऐसे ही हैं, वे अक्सर ही ये सब करते रहते हैं। इस मामले का सिर्फ़ इसीलिए इतना बतंगड़ बन गया है, क्योंकी इसका पैसा लगना था मायावती के जन्मदिवस समारोह पर। ये है माया की माया.....और यही है असल मायाराज। इस बार के असेम्बली चुनावों में मायावती ने ऐसे १३३ लोगों को अपनी पार्टी से टिकट दिया था, जिन पर एक नही बल्कि कई आपराधिक मामले दर्ज थे। इनमे करीब ६३ विधायक बन गए, और इनमें से ही एक हैं विधायक शेखर तिवारी। ये कब तक चलता रहेगा। पाँच लाख रुपये की राशि देने से इंजिनियर मनोज गुप्ता वापस तो नही ही आ जायेंगे। उनकी पत्नी के माथे में फिर वही सिन्दूर की चमक तो नही ही दिखाई देगी। जब सिन्दूर की चमक नही लौट सकती तो फिर क्यों ये सब और कब तक ये सब झेलना पड़ेगा मासूम जनता को। मदद देने से किसी अनसुलझे सवाल का जवाब नही मिल जाएगा। पूरे देश में मनोज की मौत के बाद जो आक्रोश उपजा है क्या उसे भी ये ५ लाख रुपये की बारिश ठंडा कर देगी.....नही। यही पैसा उत्तर प्रदेश सरकार पहले ही अपने सत्ता के मद में चूर विधायक को दे देती, ताकि किसी की मांग न उजडती और न ही सूनी होती किसी माँ की गोद। क्या मायावती को अपना जन्मदिन मनाना इतना जरूरी है। आज भी उनके प्रदेश में कई ऐसे लोग हैं जिनको अप्ना जन्मदिन मनाना तो बहुत दूर की बात है, उन्हें दो जून की रोटी की जुगत करना बेहद मुश्किल होता है। दो दिन तक सूबे में कई राजनैतिक पार्टियों ने जमकर इस हत्या के विरोध में बवाल काटा। पूरा सूबा इंजिनियर की मौत से दहक उठा, लेकिन भारत की प्रधानमंत्री होने का सपना पाले बैठी मायावती ने साफ़ कह दिया की इसे मेरे जन्मदिवस से न जोड़ा जाए.....। और अपराधियों को टिकट देने के मामले पर मायावती का यह कहना है की क्या उन्हें हम सुधरने का मौका न दे। पता नही उनके सुधरने का यह मौका अगले चुनावों तक न जाने कितने ईमानदार औए बेगुनाहों की बलि ले लेगा।

सूबे में कहीं बसे जलती रही तो कहीं पुलिस की गाडियाँ। जिधर देखो उधर आगजनी नजर आ रही है....और इन सबके बीच सुनायी दे रही है, उस विधवा की सिसकियाँ जिसके पति की कर दी है मौजूदा सरकार के एक सिरफिरे विधायक ने हत्या। ये सिसकियाँ कहने को यह भी मजबूर हो रही है की क्या सरकार की दी राशिः से उसके जीवनभर का यह गम मिट पायेगा.....क्या उसके बच्चो को बाप का साया मिल पायेगा.....भला इन सब सवालों से माननीय लोगों का क्या वास्ता.....।

Wednesday, December 24, 2008

जाको राखे साईंया मार सके न कोय...


बरबस ही याद आ जाता है प्रख्यात कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की पुस्तक फाइटर की डायरी का वह मार्मिक अंश, जिसमे पुत्री को जन्म देने पर उसकी माँ को पाँच दिन की नन्ही जान समेत उसके ससुराल वालों का उसे निकाल देना। बिना यह सोचे समझे की आख़िर वह इस मासूम को लेकर कहाँ जायेगी......क्या करेगी.......तो क्या शायद उसे भी चौकीदार बाबा का बेटा ले जाएगा........

कुछ ऐसे वाकये सामने आ जाते है की ईश्वर के अस्तित्व पर आँख मूदें विश्वास करने पर मजबूर होना पड़ता है। मन ही नही शरीर का हर हिस्सा अपने आप बोल पड़ता है की जाको राखे साईंया मार सके न कोय। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले की तहसील अतर्रा में कुछ साल पहले एक ऐसा वाकया हुआ, जिसने निर्धन चौकीदार बाबा के परिवार की इज्जत पर चार-चाँद लगा दिया....सिर्फ़ उनकी नजरों पर जो इस वाकये को जानते हैं। इनकी भी गिनती चार-पाँच में ही सिमट जाती हैं।

चौकीदार
बाबा का बेटा, जो रिक्शा चलाकर अपने और अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करता है, का काम वास्तव में उन कथित समाजसेवियों, रहीसों के मुह पर तमाचा है जो अपने को समाज का सरंक्षक और नैया पार लगाने वाले से कम नही समझते। जैसा मालूम पड़ा उसके मुताबिक उस अत्यन्त निर्धन रिक्शाचालक ने बोरे में बंधी मिली एक नवजात बच्ची को, जिसे दरकार थी उस समय माँ के आँचल की और किसी के दुलार की......उसको उसने सहर्ष अपनाया। और ले जाकर उसको अपनी बेटी की तरह पालने लगा। न जाने वह बेचारी कौन है....कौन है उस मासूम की जीवनदायनी, जिसने इतनी बेरहमी के साथ उसे बोरे में बांधकर रेलवे स्टेशन पर मरने के लिए छोड़ दिया। सच में संवेदनाये तो अब दम तोड़ती नजर आ रही हैं। मामला पुलिस के पास पहुँचा, तो मजमा लगने में देर ही क्या थी......आख़िर क्यों न लगता। मजमे में पहुँचा हर शख्स सिवाय उसको एक दिन का नाटक समझकर ही देखता रहा.......लेकिनउस मासूम को अपनाने आया वह...जिसके ख़ुद खाने का ठिकाना न रहता था। यह एक करार तमाचा है समाज के उस वर्ग पर जो गीता के उपदेश और भलाई के व्याख्यान इधर-उधर देते रहते हैं और मौका पड़ने पर बदल लेते हैं गिरगिट की तरह रंग। जैसा बताया गया उसके मुताबिक अब वह मासूम स्कूल भी जाने लगी है। इतना ही नही वह बेचारी अपना काम करने के अलावा घर के कई कामों में भी अब बताने लगी है अपना हाँथ। यहाँ बार-बार एक ही सवाल मन में उबाल मार रहा है की आख़िर उस नवजात के साथ ऐसा क्यों हुआ। क्या उसे सजा मिली एक लडकी होने की या फिर मामला कुछ दूसरा ही है। चलिए अगर मामला कुछ दूसरा ही है तो भाई उस मासूम को सजा क्यो दी जा रही है। इसे निपटाने के कई बेहतर तरीके भी हैलेकिन यह तरीका तो ठीक नही है। इसे अगर मानसिक दिवालियापन कहा जाए तो ग़लत नही होगा। शायद लोग बेशर्मीपुर्वक यह जानते है की अगर भगवान् ने पेट दिया है तो वह कुछ न कुछ पेट भरने के लिए दाने फेकेगा ही। खैर मामले को छोडिये लेकिन यहाँ एक बात दीगर हैं की अभी भी इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में कुछ छिपे ही सही ऐसे बेहतरीन लोग मौजूद हैं जो नेक काम करते तो रहते है....लेकिन उसकी मलाई खाने के लिए आगे आ जाते है कई बेतुकी संस्थाएं।

धर्म का पता....न जाती का....न किसी और चीज का पता....पता है तो सिर्फ़ यह की वह भगवान् की बनाई एक ऐसी चीज है जिसे यूँ ही नही कहीं फेका जाता। वह भगवान् की देन है और जिसे भगवान् बनाता है उसका ठौर-ठिकाना वह पहले से ही बना देता है। शायद उस मासूम का कुछ दिन का ठिकाना चौकीदार बाबा का घर ही हो।

Monday, December 1, 2008

...नहीं यूँ ही जीते रहेंगे संगीनों के साए में

शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले।
बाकी यहींमरने वालों का नाम निशां होगा।

सलाम खुल्लम खुल्ला का उन शहीदों को जिनने हमारी सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे डाली। ख़त्म कर डाला उन दहशतगर्दों को, जो पिछले ६० घंटों से दिन-रात या फिर यूँ कह ले की कभी न थमने वाली आमची मुंबई में मौत का नंगा नाच खेल रहे थे। नाज है हमें अपने उन शहीद हुए २० जवानो समेत काल के गाल में समां चुके १८० लोगों पर।

वास्तव
में हाल में मुंबई में हुए देश के अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमलों ने आम आदमी तक को हिला दिया है। इस हमले ने इस कदर भारत में रह रहे लोगों के दिलों में भय का बीज बो दिया है, जिसे अब आसानी से तो नही ही हटाया जा सकता। हर एक भारतवासी यह सोच रहा है की क्या वह सुरक्षित है....क्या वह इस वतन में सुख-चैन की साँस ले सकता हैं....शायद नही। २६ नवम्बर को रात १० बजे से लेकर २९ नवम्बर की सुबह ११ बजे तक जो खूनी खेल भारत की आर्थिक राजधानी पर चल रहा था, उसकी कल्पना करते ही रूह कांपने लगती है। यहाँ यह सवाल पैदा हो रहा है की आख़िर चूक किसकी है। किसकी गलती का खामियाजा इन बेगुनाह १८० लोगों को मिला है.....और जो असुरक्षा की भावना लोगों में घर कर गयी है, वह आख़िर कैसे मिटेगी। मुंबई के कोलाबा के मच्छीमार इलाके में २६ नवम्बर की सुबह यदि स्थानीय लोगों की मानें तो उन्होंने इन दहशतगर्दों को नाव से भारी समान के साथ उतरते देखा था। इनको देखकर वहां के कुछ लोगों ने इनसे यह सवाल भी दागा था की...भाई आप लोग कौन हैं। लेकिन इन्हे बजाय सही जवाब मिलने के उत्तर यह मिला की तुम लोग अपना काम करो। तुम लोगों से मतलब की हम लोग कौन हैं। इस पर स्थानीय लोगों को कुछ संदेह हुआ और इसकी जानकारी पास की पुलिस चोकी को दी गयी, लेकिन कोई भी कदम उठाने के बजाय पुलिस वालों ने इनकी बात को भी पूरी तरह से अनसुना कर दिया। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है की आख़िर चूक किसकी है। यहाँ स्थानीय लोगों ने तो अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभायी, लेकिन जिसे निभाने का पैसा दिया जा रहा है....उनके कानों में जू तक नही रेंगी। जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा बेचारे बेगुनाह लोगों को।

६०
घंटों तक पूरा देश दहशत के साए में जीने को मजबूर हुआ। और अब भी कोई उनसे डर कोई कोसों दूर नही भाग खड़ा हुआ है। मंडरा रहा है अब भी आतंकी खतरा बेगुनाहों के सर के ऊपर, लेकिन राजनेता हैं की बाज आने को मजबूर ही नही हो रहे हैं। इस मौके पर भी हमारे राजनेता समस्या हल करने के बजाय एक-दूसरे पर आरोप लगाने से बाज नही आ रहे हैं।
कहाँ गयी राज की बहादुर सेना...जवाब चाहिये:
जिन मुंबई दहशतगर्दों से जूझ रही थी.....लोगों के मोबाइल पर एक मेसेज लगातार दौड़ रहा था की, आख़िर कहाँ चुप गए हैं राज के कथित बहादुर मानुष। उत्तर भारतियों पर कहर बरपा रहे मानुषों को चढ़ जन चाहिए था मुंबई की शान ताज पर, यहूदियों के शरणगाह नरीमन हाउस पर। और देना चाहिए था मुहतोड़ जवाब पकिस्तान से आए दरिंदों को। अब भी समझ जाइये राज ठाकरे जी........उत्तर भारतियों पर कहर बरपाना छोड़ बरसाएं अपना कहर आतंकवादियों पर, जो तुले हुए हैं देश का माहौल बिगाड़ने पर।
क्यों नही दिए जा रहे नए हथियार:
आतंकवादियों को मुहतोड़ जवाब देने के लिए हमारे सुरक्षाकर्मियों के पास आधुनिक हथियार नही है। क्यों वे लोग खस्ताहाल हथियारों से दहशतगर्दों से लड़ने को मजबूर हो रहे हैं। मीडिया रिपोर्टों को खंगालने से पता चलता है की उनके पास जो भी हथियार है, uन पर भी जंग लग चुका है। कुछ ने तो यहाँ तक कहाँ की हमारे पास बुल्लेत्प्रूफ़ जैकेट का भी आकाल है। तो भला बताएं हमारे जवान कैसे प्लास्टिक बम का सामना कर सकेंगे, कैसे वो हर तरह से लैस दहशतगर्दों से निपटेगी। सब कुछ ख़राब हो चुका है, यह तंत्र भी और ये नेता भी।
कैसे लौटेंगे हमारे शहीद...जवाब चाहिए:
क्या किसी भी राजनेता के पास इस बात का जवाब है की हमारे शहीद हुए जवान और बेगुनाह लोग कैसे वापस लौटेंगे....शायद नही है इनके पास कोई जवाब। कैसे भरेगी किसी की उजड़ चुकी मांग...कैसे भरेगी किसी माँ की गोद। इन सब सवालों का तो किसी के पास जवाब ही नही है। ऐसे मौके पर सान्तवना देने के बजाय राजनेता जुट गए हैं एक दूसरे की बखिया उधेड़ने में। और शुरू हो गया है बेकार के आरोप-प्रत्यारोपों का दौर।
तो हम क्या करें.....जवाब चाहिए:
आतंकी हमलों के दौरान ख़ुद अमिताभ इतना सहम गए थे की, उनने अपनी तकिया के निचे पिस्टल राखी...और तब जाकर उन्हें नीद आए॥वह भी आधी-अधूरी। देश के जब महानायक का यह हाल है, तो भला आप ही बताइए की आप और हम कैसे जियेंगे। किसके सहारे हम रहेंगे...कौन करेगा हमारी सुरक्षा। राजनेताओं की बड़ी-बड़ी बातें करेंगी हमारी सुरक्षा। हटा देनी चाहिए इनकी सुरक्षा। क्या आम आदमी से बड़ा कोई राजनेता है...शायद नही। शायद क्या॥है ही नही।

शर्म
आती है बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लाल कृष्ण अडवानी के वक्तव्य पर। उन्होंने कहा की इन हमलों के बाद अब कांग्रेस सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए। मैं यहाँ किसी का बचाव नही कर रहा हूँ, बस अडवानी जो को यह याद दिला रहा हूँ की उनकी पार्टी के कार्यकाल में तो संसद भवन पर हमला हुआ था, तब क्या हुआ था श्रीमान जी। और आप इसी आधार पर जनता से एक और मौका मांग रहे हैं......शर्म आनी चाहिए श्रीमानजी आपको। बस अब हमें और कोई वादे नही, कोई दिलासा नही....सीधे-सीधे कारर्वाई चाहिए। एक बार फिर सलाम अपने जांबाज जवानों और भाइयों पर.............आतंकी हमले क्यों नही हो रहे हैं बंद...इसका जवाब चाहिए...... ।

आंखों के सामने......

आपके आंसू मेरी आंखों में हैं, आपका दिल मेरे पास है।
आपकी वफ़ा हूँ मैं, आपका प्यार हूँ मैं।
मेरी हर साँस में हैं आप बसे, तो हम तुम जुदा कहाँ हैं।
हम तो एक-दूसरे में हैं, सिर्फ़ आपसे ही हमें प्यार है।
दूर होकर भी हमें महसूस होता है, एक-दूसरे का स्पर्श।
महसूस करते हैं हम, रग-रग में आपका साथ।
आपकी ही छवि ही थी, जिसे पल-पल सोचा था।
आप हैं मेरी पलकों में, आप है मेरी गोद में, मेरी साँसों में।
तो बताइए, कहाँ हैं हम एक-दूसरे से दूर।
इन्तजार है हमें आपका, और रहेगा हमें आपका
ही इन्तजार..................।

Saturday, November 15, 2008

संवेदनाएं जैसे मर ही चुकी हैं....

संवेदनाशून्य हो चुके हैं सभी। लिखने को मजबूर किया उस आंखों देखे दृश्य ने जिस पर हिन्दुस्तान की सरजमीं पर खड़े होकर तो विश्वास ही नही किया जा सकता। स्तब्ध होकर खड़ा रह गया उस शाम को मेट्रो सिटी के एक चौराहे पर।
किसी को किसी से जैसे कोई मतलब ही नही है। और मतलब रखने वाला इंसान या तो मूर्ख कहा जाता है या फिर बना दिया जाता है जबरन समाजसेवी। शाम को सूर्यभगवान् ढलने को थे की तभी एक मेट्रो सिटी की सड़क पर फुटबाल की तरह चलती गाड़ियों के बीच एक मोटरसाईकिल सवार का फिसलकर गिरना हुआ.... । उस समय वहां मौजूद या फिर यूं कह ले की आसपास से गुजरने वालो के रोंगटें खड़ा कर देने के लिए यह पर्याप्त था। उस बन्दे के पास जाना तो दूर आसपास वालों ने उसे उठाने की जहमत तक नही उठाई। और तो और वाहनों की रफ़्तार भी थमने का नाम नही ले रही थी। ज्यों....ज्यों शाम होती जा रही थी...ठीक वैसे.....वैसेहीलोगों को अपने गन्तय तक पहुँचने की चिंता सताए जा रही थी। बीच में पड़ा मोटरसाईकिल सवार जो गिरनेसे सहमा हुआ था......उसे तो अब यह डर सताने लगा की जो बचा-खुचा है कहीं वह भी न चला जाए। बेचारा मरता क्या न करता.....जस का तस् पड़ा रहा। मौके पर मौजूद एक व्यक्ती ने जाकर उसकी जैसे भी मदद कर सकता था....वैसे मदद की। शुक्र था ऊपर वाले का की उसका बाल भी बांका नही हुआ। सवाल यहाँ यह खड़ा हो रहा है की आख़िर लोगों की संवेदनाएं क्यों मर चुकी हैं या फिर ख़त्म हो रही हैं... । अगर किसी का कोई अपना होता तो क्या ऐसे में किसी का वाहन हवा से बातें कर रहा होता........ शायद नहीं।
कोफ्त होती है की यह वाही देश है जहाँ पड़ोसी राज्य पर हमले का दृश्य टीवी में देखकर लोग सिसकियाँ लेने लगते थे। मोका- ऐ-वारदात का दृश्य तो भूल ही जायें। तेज रफ़्तार जिन्दगी में दौड़ते आप और हम....और इनके बीच में पिसती हैं संवेदनाएं।
हर तरफ़ भागते-दौड़ते रास्ते.... ।
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी.... ।
निदा फाजली साहब की ये पक्तियां झकझोरने के लिए काफी हैं.....।

Thursday, October 30, 2008

जिम्मेदारी तो तय होनी ही चाहिए......

कब तक यूँ ही चलता रहेगा.....। आख़िर अब वक्त आ गया है की खबरिया चैनलों की कुछ जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। लगनी ही चाहिए न्यूज़ चैनलों पर बंदिशें। कुछ भी समझ में नही आता तथाकथित न्यूज़ चैनलों के आकाओं को।
वीरवार को असम में हुए धमाकों के ख़बर के प्रसारण के दौरान कुछ ऐसी तसवीरें बार-बार दिखाई जा रही थी, जिन्हें देखकर तीस साल की उम्र वाले की रूह काँप जा रही थी, तो भला बताइए अगर उस वक्त कोई बच्चा इन तस्वीरों को देख रहा होगा तो उसका क्या हाल हो रहा होगा। करीब एक बजे के आसपास ज्यों ही मेरी नजर एक तथाकथित खबरिया चैनल पर पड़ी तो उस पर ताबड़तोड़ असम में हुए धमाकों के विचलित कर देने वाली तसवीरें दिखायी जा रही थी। उस समय तक तकरीबन पाँच लोगों के मरने के पुष्टि हुयी थी। ऊपर लाल पट्टी......नीचे लाल पट्टी और बीच में चल रही थी दिल को झकझोरने वाली तसवीरें। हर एक मिनट के अन्तराल पर नजर आ रही थी वही कप-कंपा देने वाली तसवीरें। पता नही इन चैनलों के आकाओं को कब समझ आयेगी कि ऐसी तसवीरें दिखाके वे कौन सी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं। बार-बार टीवी कैमरे के सामने खून से लथपथ या फिर यूँ कह लें कि इससे सना हुआ एक व्यक्ति का दिखायी देना रोंगटें खड़ा करने के लिए काफी था। ऐसी तसवीरें एक ज़माने या इस तरह कह लें की आज भी समाचार पत्रों में दिए जाने से पहले दस बार सोचा जाता है। समाचार संपादक या फिर संपादक इस बात की दुहाई देने लगते हैं की सुबह जब हमारा अखबार हमारे पाठक के पास जाए तो, हमें यह भी ख्याल रखना चाहिए की उसकी मुलाकात डर से न हो। हमारा मकसद किसी को डराना नही हैं, बल्कि मकसद है तो सिर्फ़ एक...... आम जनमानस को एक तथ्यपरक ख़बर से अवगत कराना। लेकिन टीआरपी की दौड़ में आगे रहने के लिए ये खबरिया चैनल इतने पागल हो चुके हैं की, उन्हें इस बात का जरा भी भान नही होता की उनकी इन हरक़तों से जनमानस पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अब इस पर कुछ लोगों का ये तर्क होगा की हम तो आइना है......जैसा चेहरा होगा, वैसा ही दिखेगा। मैं यहाँ ये नही कह रहा की आप पूरी तरह से आइना न बनें, लेकिन मैं यहाँ यह भी कहने से कत्तई नही चुकूँगा की आपको किसी को भयावह तसवीरें दिखाने का अधिकार नही है। इतना भी साफ़ आइना मत बनिए की आपके भाइयों को ही अपना चेहरा देखने से डर लगने लगे। वरिष्ठ पत्रकारों को अक्सर सेमिनारों और सम्मेलनों में इन सब चीजो से पत्रकारिता के अंकुरित हो रहे बीजों को बचने के लिए कहा जाता है। लेकिन क्या वे जो सेमिनारों में बोलते हैं....उस पर पाँच मिनट भी गौर करते हैं...शायद नही। अपनी-अपनी जगह पहुंचकर सब कुछ भूल जाते हैं....जो उन्होंने कहीं बोला था।
अब वक्त आ गया है की इन पर या यूँ कह लें की इस तरह के प्रसारण पर रोक लगनी ही चाहिए। बाकायदा इसे रोकने के लिए एक पैनल का गठन भी किया जाना चाहिए की आख़िर उनकी सीमाएं क्या हैं और उनको लाँघने में इसका क्या खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। एक चीज और पैनल में चैनल के आका न शामिल किए जाए.....समाज के प्रबुद्ध लोगों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए, जो डाल सकें बेलगाम होते चैनलों के पैर में बेडिया......जंजीरें.....जिन्हें तोड़ने से पहले....एक बार नही, उन्हें कम से कम दस बार सोचना पड़े.....।

Monday, October 6, 2008

शर्म आती है.......भारत माता की जय....

ये तमाचा है...हर उस हिन्दुस्तानी के गाल पर जो गर्व से लबरेज होकर पन्द्रह और छब्बीस जनवरी को भारत माता की जय-जय कार लगाता हुआ चलता है। और सीना तान के कहता है की उसे अपने इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और यहाँ के बाशिंदों पर नाज है।
उड़ीसा के कंधमाल जिले की घटना हमारा सर शर्म से झुका देने के लिए काफ़ी है। कोफ्त होती है....जब हमारे हिंदूवादी संगठनों की तरफ़ से अल्पसंख्यकों पर कहर बरपाया जाता है। खासकर जब इनकी क्रोधाग्नि में झुलस जाते हैं स्त्री और नौनिहाल। कंधमाल जिले में पच्चीस अगस्त को हुई हिंसा के दौरान एक नन के साथ हुए दुराचार को याद कर रोयें खड़े हो जाते हैं। हदें तो तब पार हो गयी जब एक महिला को कुछ अतिवादी सगठनों ने भारत माता की जय........भारत माता की जय...के नारे लगाते हुए निर्वस्त्र घुमाया........। इन हिंदू अति वादी सगठनों ने भारत माता तक को नही बख्शा। क्या भारत माता यही चाहती है की उनके सुपुत्र किसी बेसहारी महिला को निर्वस्त्र घुमाते हुए उसकी जय- जय कार लगायें। सच बताऊँ तो कभी-कभी शर्म आती है की यह वही धरती है जहाँ कभी पांचाली द्रोपदी की लाज बचाने के लिए ख़ुद मुरलीधर को आना पड़ा था। इससे बड़ी हुक्मरानों के लिए शर्म की बात क्या कोई और हो सकती है। इनमें से कुछ हुक्मरान तो इस पर भी राजनीति करने से नही बाज आ रहे है। राज्य सरकार को नन से दुराचार मामले की जानकारी पूरे पाँच हफ्ते बाद हुई। अब बताये उस निकम्मी राज्य सरकार से न्याय की क्या उम्मीद की जाए। इस राज्य में भाजपा समर्थित सरकार है......तो क्या अब न्याय इस परिवार समेत उनको मिल पायेगा जो इस हिंसा की गोद में जा समायें हैं। अल्पसंख्यकों पर गाज २३ अगस्त को विहिप नेता की मौत के बाद गिरी थी। फिर क्या था....मच गया पूरे इलाके में कोहराम, जो की अब तक मचा हुआ है। बहरहाल एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में ये सब शोभा नही देता। जिस नन के साथ दुष्कर्म हुआ था, उसका अभागा पिता दुर्गा पूजा में मशगूल था। उस अभागे पिता का इस पूरी घटना पर महज यही कहना है की दोषियों को सजा माँ दुर्गा ही देंगी। इससे बड़ा किसी राष्ट्र के लिए और क्या दुर्भाग्य हो सकता है, जहाँ के बाशिंदे इन्साफ के लिए सिर्फ़ परमेश्वर पर ही आस टिकाये हुए हो। अब बेचारे असहाय माता-पिता को ये भी पता नही हैं की उनकी राज दुलारी कहां है या फिर किस हालत में है।
यह सब ऐसे समय हुआ है जब वैटिकन की ओर से भारत की पहली नन को संत की उपाधि से नवाजे जाने की घोषणा हुई।सिस्टर अल्फोंजा केरल की रहने वाली हैं। शायद इसी के चलते केन्द्र की मनमोहन सरकार ने उड़ीसा सरकार पर जल्द से जल्द इस मामले को निपटा लेने की नसीहत भी दे डाली है। अब यहाँ ये सवाल उठता है की जब कहीं बम विस्फोट होते हैं तो हमारी पुलिस, जो विस्फोट होने के बाद ही जागती हैं, इसको अंजाम देने वाले मुखिया को खोजने निकल पड़ती है। तो क्या इस क्रूरतम घटना को अंजाम देने वाले मुखिया को हमारी पुलिस खोज निकालने में सफल हो पायेगी......जवाब चाहिए....।

चल पड़े साथ-साथ..........

हर रोज होती है मेरी मैं के साथ लड़ाई।
वो कहता है की मैं बड़ा तो वो कहता है की मैं।
इसी बहस से ही जग में होता है उजियारा।
तो इसी के साथ पसर जाता है चहूँ ओर
और अँधियारा।
चांदनी रात भी इनकी कोई चैन से नही गुजरती।
सपनों में भी ठानते हैं ये एक-दूसरे से रार।
एक दिन मैंने मैं से पूछा, बता तेरा वजूद क्या है।
झल्लाए मैं ने कहा जिस दिन मैं नही, उस
दिन तू नही।
शून्य से शिखर तक का रास्ता मेरे से ही
होकर जाता है।
जिस दिन मैंने साथ छोड़ा उस दिन तू कुछ नही।
जिसका मैं नही उसका इस धरा में कोई वजूद नही।
अब मैं ने पूछा........बता तेरी रजा क्या है।
घबराए मैंने न आव देखा न ताव....... ।
सहमा-सहमा बोला जिसका तू नही उसका
मैं नही.... ।
.........साथ ही बोला चल अपनों के लिए
तू भी समर्पित।

Friday, October 3, 2008

ख़ुद ही न कर लें मिस्टर टेन परसेंट बेडा गर्क

मार्क ट्वैन ने सच ही कहा है कि मनुष्य बुलंदी या फिर यूँ कह ले कि समृधि के शिखर पर परमेश्वर के आशीर्वाद से पहुँचता है और अपनी दुर्गति के लिए वह ख़ुद ही जिम्मेवार होता है। ऐसा ही कुछ अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के सर्वोच्च पद पर हाल में आसीन हुए व्यक्ति के साथ देखने को मिल रहा है। और जो अभी तक नही हुआ वो आने वाले समय में हो ही जाएगा।
यहाँ बात हाल में पाक राष्ट्रपति का पद पाने वाले आसिफ अली जरदारी की हो रही है। मालूम हो की जरदारी कुछ समय पहले बम विस्फोट में मारी गयी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की नेत्री बेनजीर भुट्टो के ही पति हैं। यदि जरदारी का इतिहास खंगाला जाए तो....कुछ भी ऐसा नही मिलता है......जिसके बलबूते पाकिस्तान की अवाम अपने इस नए-नवेले राष्ट्रपति पर नाज कर सके। उल्टा इसके लिए उसे अपना सर शर्म से झुकाना पड़
सकता है। पाकिस्तान की अवाम और सियासी गलियारों में मिस्टर टेन परसेंट के नाम से जाने जाने वाले मियां जरदारी कितनी हद तक पाकिस्तान को आर्थिक और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत कर पाएंगे......ये तो अल्लाह ही जाने। मिस्टर टेन परसेंट के उपनाम से इन्हे इसीलिए जाना जाने लगा क्योंकि इनका नाम किसी भी सौदे में कम से कम दस फीसद दलाली खाने वालों की सूची में अव्वल था। अब आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं की इस समय आपका पड़ोसी मुल्क किसके हांथो में हैं। बागडोर सम्हालते ही इनकी कश्मीर को लेकर की गयी टिप्पडी को भी भारत के हित में देखना उचित नही होगा। बहरहाल अब भारत को कश्मीर मामले पर फूँक-फूँक कर कदम रखने होंगे।
जैसे हालात इस समय पाक में हैं....उन्हें देखकर तो ऐसा नही लगता की पाक की असली आवाम इनकी हरकतों को पसंद करती हो। हाल में तो अपने नवेले राष्ट्रपति की दीवानगी के ख़िलाफ़ अंदरखाते पाक की हुकूमत चला रही लाल मस्जिद ने फतवा ही निकाल दिया। मालूम हो की अपनी विदेश यात्रा के दौरान जरदारी ने अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी से उपराष्ट्रपति की उम्मीदवार सारा पालिन की सुन्दरता में इतने कसीदे पढ़ दिए की उनको इसके लिए चारो और आलोचना झेलनी पड़ी। जरदारी को कहाँ इसका अंदाजा था की सर मुंडाते ही ओले पड़ जायेंगे। शायद हो सकता हो की उनके इस कसीदे के पीछे कुछ राजनैतिक कारन भी रहे हो, लेकिन इस बात पर भी कोई संदेह नही होना चाहिए की यह सब उनकी कुर्सी और उसकी गरिमा के अनुरूप नही था।
बात शीशे की तरह साफ़ है की जितने मुश्किलात का सामना भारत को पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ के दिनों में नही करना पड़ा है, उतने ही मुश्किलातों से अब दो चार होने के लिए शांतिप्रिय भारत को अपनी कमर कस लेनी चाहिए।

.....एक नया आसमां

पता नही क्यो...नही है आदत भीड़ में खो जाने की।
भीड़ में शामिल हो... ख़ुद का वजूद मिटा देने की।
कुछ अलग करने की चाहत मन में सँजोकर।
निकल पड़े है एक नया आसमां बनाने।
उस नए आसमां में भी एक ही चाँद होगा।
अनगिनत लुभाते टिमटिमाते तारों के बीच।
जो देगा शीतलता सबको पूर्णमासी के चाँद की तरह।
अपनी फितरत में शामिल नही सफर अधूरा छोड़ना।
मिलता है सुकून मंजिल के दर पर ही पहुंचकर।
अरे सफर तो कमबख्त सफर ही होता है..........।
बोझिल
...., उबाऊ....., थकाऊ......और पकाऊ.....।
वो सफर.....सफर ही क्या, जिसमें काटों का पथ न हो।
आख़िर निकल जो पड़े हैं... एक नए आसमां
बनाने
का ख्वाब संजोये..............

Wednesday, October 1, 2008

जन्नत के साढे पाँच कदम......

अमिय बड़ा खुश था, जब से उसके कदम
जन्नत में पड़े।
कौन नही चाहता, आख़िर उसके कदम भी
जन्नत में पड़े।
जब से आँखें चार हुई, तब से जन्नत में ही
गोते लगा रहा था।
फिर क्या था, शुरू हो गया सपनो के महल
बनने का सिलसिला।
ईट भी आ गया और गारा भी, मतवाला हो
ख़ुद जुट गया महल बनाने में।
मदमस्त भोरें को जरा भी अहसास न था कि, महल
बनाने को कुछ और भी चाहिए।
मन में कुछ उलझन और बैचैनी लिए, जोड़ता
चला जा रहा था ईट से ईट।
क्या पता था अपनी धुन में रमे भोरें को
कि, उसकी नींव ही कमजोर है।
पल-पल नीचे गिरते जा रहे गारे को, उठा-उठा
कर जोड़ता चला गया।
अचानक धड़ाम कि आवाज के साथ, ज्यों ही
वो बिस्तर से नीचे गिरा।
रेत की तरह बिखर गया, बेफिक्र भोरें का
सपनो का महल..........।

...यदि लग जाए बचपन का तड़का

आज भी याद कर आंखों में हलकी सी नमी आ जाती है और होने लगती है मन में अजीब सी उथल पुथल। महीनों पहले से ही प्लानिंग बनने लगती थी कि इस बार क्या करें या न करें....। बात हो रही है त्योहारों की...उसमें किस तरह शामिल होया जाए......आख़िर मन ही तो है.....इसे कैसे समझाया जा सकता है। समझाने के कई तरीके भी है और इसे मनाने के भी लेकिन नतीजा सिफर........
मन में तरह तरह की उम्मीदें हिलोरें लेने लगती थी। अभी भी याद है जैसे ही कोई त्योहार अपनी दस्तक देता था , तो मन ही मन लड्डू फूटने लगते थे..... की इस बार तो मजा आ ही जाएगा। रात रात भर नींद नही आती थी इस बैचैनी में की कही इस बार त्योहार का रंग फीका न पड़ जाए। घर से चोरी छिपे जाकर त्योहार का लुत्फ़ उठाना। किसी त्योंहार के आते ही घर की ओर तुंरत अपना बैग उठाकर चल देना। बिना किसी फिक्र के.....मस्ती में मदमस्त होकर। बचपन के साथ साथ यदि त्योहारों को मिला दिया जाए.....तो चार चाँद लगना स्वाभाविक ही है। डाट भी पड़ती थी.....कि ऐसा मत करो और वैसा न करो....लेकिन उसका मजा भी तो अलग ही था। पर मानने वाले कहाँ थे। किसी बड़े के समझाने का असर बस थोड़ा देर ही रहता था....और उसके बाद ऐसे गायब हो जाता था...जैसे गधे के सर से सींग। एक तो त्योहारों का नशा सवार रहता था और उस पर जो बची खुची कसर रहती थी तो लग जाता तो बचपन का तड़का। फिर क्या था.......त्योहारों का मजा वो भी घर वालों के साथ डबल हो जाता था। कभी कभी कोई बड़ा आकर समझाता था कि यार अब तो आदतें बदल डालो...अब तुम लोग बड़े हो गए हो.....। और अब बड़े होने या यूँ कह ले की जब ख़ुद को यह अहसास होने लगा कि अब हम बड़े हो गए हैं तो मन में हलकी सी एक कसक लिये कि यार अब बड़े हो गए कोई भी काम करते हैं और इस तरह के काम करना हमारे बड़प्पन पर दाग लगा सकते है......बिना यह सोचे कि दाग तो चाँद में भी होता है।
सच बताऊँ तो आज की तारीख में त्योहारों के मायने ही बदल गए है। लोग भी तो बदल गए हैं। जब लोग बदल रहे हैं तो उनकी सोच बदलना भी तो जायज ही है। लेकिन सब कुछ तो नही न बदलता......सब लोग भी नही बदलते......। यही पर निदा फाजली साहब की कुछ पक्तियां याद आ रही हैं, जो कुछ इस तरह हैं...
पुरानी एक मुंडेर पर, वक्त बैठा कबूतरों को उड़ा रहा है।
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं, कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं।

Tuesday, September 30, 2008

कोई तो बचना ही चाहिए.....

आज अगर खामोश रहे तो, कल सन्नाटा छायेगा
हर बस्ती जल जायेगी, हर घर जल जाएगा
तब सन्नाटे के पीछे से, एक सदा ये आएगी
कोई नही है, कोई नही है, कोई नही है.........
पता नही मनमोहन जी आज कल मन में सिर्फ़ यही पक्तियां आ रही है। आख़िर इस देश में हो क्या रहा है। कब तक यूँ ही खून की नदियाँ बहती रहेगी। कब तलक मांग से सिन्दूर मिटता रहेगा....कब तक यूँ ही उजड़ती रहेगी किसी माँ की गोद। आतंकवाद है की ख़त्म होने का नाम ही नही ले रहा है और न ही कोई हो रही है इसे ख़त्म करने की ठोस पहल। हर हप्ते कहीं न कहीं कोई न कोई आतंकवाद की लपेट में आ ही जा रहा है। हाल में हुए दिल्ली और महाराष्ट्र में विस्फोट आख़िर किसकी विफलता दर्शाते हैं। मर तो आम आदमी ही रहा है। क्यों हो रहा है सरकारी तंत्र विफल। आख़िर क्यों नही दिया जा रहा जैसे को तैसे मुहतोड़ जवाब।
मुझे आज भी याद है वो ग्यारह सितम्बर २००१ का दिन। जिस दिन अमेरिका पर आतंकवादी हमला हुआ था, जिसमें नेस्तनाबूद हों गया था वर्ल्ड ट्रेड सेंटर। बस नजर आ रहा था, तो सिर्फ़ आसपास खंडहर। उस समय मैं था बमरौली एयर फोर्स स्टेशन में। जैसे ही हमला हुआ बज गया पूरे एयर फोर्स स्टेशन में सैरन। सैरन बजते ही तेज हो गई पूरे एयर फोर्स स्टेशन कर्मियों और उनके परिजनों की धड़कने। बस सब के दिल में भय बैठ गया था। सोचिये यह भय भारत में हमला होने का नही था। था तो सिर्फ़ अमेरिका जैसे देश में हमला होने का भय। जब अमेरिका जैसा देश सुरक्षित नही है तो हम कैसे सुरक्षित रह सकते हैं। तब का ग्यारह सितम्बर २००१ का दिन और आज का दिन। २००१ के बाद अमेरिका पर ऐसा कोई हमला नही हुआ जिसमें बेकसूरों को मोहरा बनाया जाए। अमेरिका ने आतंकवादियों का मुहतोड़ जवाब दिया........अरे भाई ज्यादा न सही तो कम से कम अपने देश में उसका सर तो कुचल ही दिया। और लगा है अभी भी कुचलने mइ उका सर। लेकिन हमारे यहाँ हमले हैं की थमने का नाम ही नही ले रहे हैं । रोज कहीं न कहीं आतंकवादी विस्फोट करते है, जिसमें चली जाती है नौनिहालों समेत वृद्ध और नवजवानों की जानें।
अब बहुत हो गया..........कुछ तो ठोस पहल की ही जानी चाहिए। नही तो यूँ ही जाती रहेंगी बेकसूरों की जानें और राजनेता सेंकते रहेंगे तुष्टिकरण की रोटियां। दहशतगर्दों को अब सबक सिखाने का समय आ गया है। केन्द्र में सत्तासीन सरकार को चाहिए की वो अब तुष्टिकरण की राजनीति बंद कर देश की आने वाली पौध के मन से भय का साया निकाल फेंके। नही तो मुझे नही लगता की जिस सुंदर भारत का सपना मनमोहन सरकार मन में सजाये केन्द्र में सत्तासीन हुई थी, वो और आगे लगातार काबिज रह पायेगी। मनमोहन जी ने करार में तो बाजी मार ली है ....तो क्या वो अब देशवासियों की सुरक्षा में बाजी मार पाएंगे..........जवाब चाहिए.........।